आजाद बने रहने के लिए जरुरी है, अपना इतिहास याद रखना|
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प्राचीन भारतीय शास्त्रीय साहित्य का अवलोकन करने पर हम देखते हैं कि उसमें मध्य एशिया की भूमि और लोगों के संदर्भ दिए गए हैं जिसका वर्णन बी.बी. कुमार ने अपनी पुस्तक इंडिया एंड सेंट्रल एशियाः ए शेयर्ड पास्ट में विस्तापूर्वक किया है । वेदों, पुराणों, महाकाव्यों और मनुस्मृति के अलावा, हमें कालीदास के रघुवंश, कल्हण की राजतरंगिनी और क्षेमेन्द्र की बृहत कथा मंजिरी, सोमदेव के कथा सरित सागर, राजशेखर के काव्य मिमांसा और विशाख दत्त के मुद्राराक्षस में उनका उल्लेख मिलता है।
वैदिक साहित्य में मध्य एशिया
भारतीय शास्त्रीय साहित्य मध्य एशिया को उडिच्य या उत्तरपाथा (उत्तरी क्षेत्र) के अंतर्गत वर्गीकृत करता है। सामवेद के वामसा ब्राह्मण में औपमान्यवा के शिक्षक मद्राकर शौगंयानी का उल्लेख है।1 ये नाम का संकेत करते हैं वे कंबोज (हिन्दुुकुश और पामिर) और उसके करीबी पड़ोसी मद्रा से संबंधित थे। इसी प्रकार, उत्तर मद्रास और कम्बोज निकट पड़ोसी थे।2 फिर भी वहाँ परम कम्बोज, उत्तर मद्रा और उत्तर कुरु, जैसे क्षेत्र हैं, जो निश्चित रूप से मध्य एशिया के हिमालय में स्थित थे। जैसा कि ऐत्रेय ब्राह्रान मंे उल्लिखित है कि बहरीका उत्तर मद्रास, स्पष्ट रूप से बैक्ट्रिया (बाल्खह, बहलिका) में बसे मद्रास को दर्शाता है। ऐत्रे ब्राह्मण, उत्तर कुरु और उत्तरा मद्रा के बारे में भी बताता है।3 अथर्व वेद एक स्थान पर कई मध्य एशियाई संस्कृतियों के नामों को एक साथ वर्णन करता है। वे उत्तरपथ के शक, यवन और तुसार, और बहलिकेश (शक, यवन तूसार, बहलीकश) हैं। उनकी संगतता, अन्य नस्लों के संबंध में उन्हें अन्य जगहों की पड़ोसी जनजातियाँ दर्शाता है। यह उत्तर-पश्चिम में गांधारी, मुजावत और बहलिक के संदर्भ भी दर्शाता है। ये क्रमशः गंधार, मुज़ावत (सोम की भूमि, कंबोज क्षेत्र या हिंदुकुश-पामीर क्षेत्र) और बैक्ट्रिया हैं। अथर्व वेद पेरिसस्ता, ‘‘कम्बोज, बहलिकेश और गंधार को एक स्थान पर दर्शाता है। यह प्रत्यक्ष रूप से पहली बार कम्बोज का संदर्भ प्रस्तुत करता है।”5
भारत और मध्य एशिया के बीच का संपर्क हमें अतीत की ओर ले जाता है। उत्तर कुरू के निवासियांे के बारे में ऐसा प्रतीत होता है कि वे महाकाव्यों के पात्र थे और जिन्हें बाद में साहित्य का भी पात्र बनाया गया लेकिन वैदिक इंडेक्स के लेखक द्वारा एत्रीय ब्राह्मण ने इन्हें ऐतिहासिक बताया गया। उत्तर कुरू वशिष्ठ सत्य हव्या के लिए एक दैव्य भूमि (देवों अर्थात् भगवान का क्षेत्र) था परंतु एत्यार्ती इस पर विजय प्राप्त करना चाहता था।6 भारतीय अपने प्रत्येक दिन की प्रार्थना अर्थात् संकल्प के जम्बू द्वीप को याद करते हैं जिसमें मध्य एशिया शामिल था।7
पुराणों/भुवनकोष तथा महाकाव्यों में मध्य एशिया की भौगोलिकता
प्रत्येक पुराण के अभिन्न हिस्से के रूप में ज्ञात संसार की भौगोलिकता और इतिहास विद्यमान होता है जिसे भुवनकोष के रूप में जाना जाता है। पुराणों के मुताबिक पृथ्वी सात द्वीप समूहों से बनी है। प्रारंभ मंे द्वीप का अर्थ पानी के बीच के उभरे हुए स्थल को माना जाता था। पानी ने इसे इस प्रकार वर्णित किया है-द्वि$अप अर्थात् ”पानी के दो हिस्सों के बीच की उठी हुई भूमि”।8 परंतु पौराणिक द्वीप का तात्पर्य महाद्वीपों से अथवा जनजातियों से अथवा राष्ट्रीय क्षेत्रों से है।9 यह ”सभी प्रकार के प्राकृतिक और मानव क्षेत्रों-बड़े अथवा छोटे को इंगित करता है।”10 इसके प्रहरी जल, बालू, दलदल, ऊँचे पहाड़ और घने जंगल हो सकते हैं।11 जम्बू द्वीप संसार के सभी सात द्वीपों के केंद्र में अवस्थित है। जम्बू द्वीप के केंद्र में माउंट मेरू अवस्थित है। पुराणों की भौगोलिकता के आधार पर यहाँ यह कहना या बताना जरूरी है कि ”माउंट मेरू पामीर की गांठ है; भारत और मध्य एशिया इसके भाग हैं। यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि कुछ विद्वानों ने पुराणों में वर्णित द्वीपों का अध्ययन विशिष्ठ भौगोलिकता जिसमें पर्वत, नदियाँ, खेती/मौसम आदि के आधार पर करने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए अलबरुनी ने पुष्कर द्वीप की अवस्थिति चीन और मंगला (शायद, चीन और मंगोलिया) के बीच बताई है।12
जंबू द्वीप, जिसे सुदर्शन्दविपा के नाम से भी जाना जाता है, उसका आकार गोल बताया जाता है और सभी ओर से यह समुद्र से घिरा हुआ है।13 इसकी छह पर्वत श्रृंखलाएं हैं - हिमालय, हेमकुट, निसाध, नील, स्वेत और श्रृंग्वत हैं14 और नौ क्षेत्र (वर्षा) - हरि, भद्रस्वा, केतुमल, भारत, उत्तर कुरु, स्वेत, हिरण्यक, एरावत और इलाव्रत हैं15 जंबुद्वीप दक्षिण और उत्तर में दबा हुआ है तथा यह मध्य में ऊँचा और उठा हुआ है।16 ऊँचे क्षेत्र को इलाव्रत या मेरुवरसा के रूप में जाना जाता है; माउंट मेरु मध्य में स्थित है।
पुराण के अनुसार, जंबू द्वीप के नौ प्रभाग हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार नौ प्रभाग हैंः इलाव्रत, रामयका अथवा रामनका, हिरणमया या हिरण्यक, उत्तर कुरु या श्रृंगसाक, भद्रस्वा, केतुमल, हरि, किमपुरसुर और भारत।17 पहला प्रभाग इलाव्रत केन्द्र में स्थित है। अगले तीन और अंतिम तीन क्रमशः उत्तर और दक्षिण में स्थित हैं। शेष दो, भद्रस्वा और केतुमल क्रमशः पूर्व और पश्चिम में स्थित हैं। क्षेत्रों का भौगोलिक विस्तार महाभारत में, भीष्म पुराण में और अन्य पुराणों में दिया गया है जैसे किः मार्केण्डेय पुराण18 तथा ब्रह्माण्ड पुराण19 और ये जम्बू द्वीप को चार क्षेत्रों में उस प्रकार विभाजित करते हैं जैसे कि कमल की चार पंखुड़ियाँ होती हैं। माउंट मेरू से चार नदियों का प्रवाह होता है, अर्थात् सीता नदी पहाड़ों से निकलकर भद्रस्वा क्षेत्र से होते हुए समुद्र तक पहुँचती है; अलकनंदा भारत के दक्षिण से होते हुए समुद्र तक पहुँचती है; चकसूू (अथवा वक्सू अथवा ओक्सस) पहाड़ों से निकलकर पश्चिम की ओर केतुमल क्षेत्र तक जाती है तथा भद्र दक्षिणी पहाड़ों और उत्तर कुरु से होते हुए समुद्र तक पहुँचती है।20
वायु पुराण जंबू द्वीप के भूगोल अर्थात् पर्वत श्रृंखलाओं, घाटियों, नदियों आदि का विवरण प्रस्तुत करता है जिससे आज के कुछ भौगोलिक विशेषताओं की पहचान करना संभव है। एस.एम. अली के अनुसार, उत्तरी इलाके का विवरण में ‘यूराल और कैस्पियन से लेकर यनेसी तक और आर्कटिक के तुर्किस्तान से, टियान शान श्रंखला तक का बहुत विशाल क्षेत्र शामिल है। यह पूरे क्षेत्र की स्थलाकृति का वर्णन करता है और कुछ मामलों में बहुत सटीक व सुंदर स्थलाकृति का चित्र प्रस्तुत करता है .....‘21 पूर्व में भद्रस्वा, तारिम बेसिन और ह्वांगो नदी क्षेत्र है, यानी पूरा सिन्कियांग और उत्तरी चीन इसमें समाहित है22 केतुमल जो मेरु के पश्चिम में है जिससे चाक्सु नदी (ओक्सस नदी) प्रवाहित होती है वह पश्चिमी तुर्कस्तान से मेल खाता है।23 यह माना जाता है कि इसमें ‘व्यावहारिक रूप से समूचा प्राचीन बैक्ट्रिया जिसमें पूरा का पूरा अफगान तुर्किस्तान (हिंदुकुश का उत्तरी भाग) शामिल है तथा हरिरुड घाटी जो मुरख़ाब प्रणाली का बेसिन है (अमू दरिया के प्राचीन आधार के सभी हिस्सों में) और सुरख़ान, कफिरिनिगन, वाख्श और युकसू नदियों की घाटियाँ शामिल है... ‘24 हरि25 और भारत क्रमशः पश्चिमी तिब्बत और हिंदुस्तान का प्रतिबिंबित करते हैं। मेरु के आसपास का क्षेत्र अर्थात् पहाड़ी क्षेत्र, मेरुवर्षा अथवा इलाव्रत था। हिमालय और हिंदुकुश में पामीर से आर्कटिक तक का क्षेत्र उत्तर कुरु के रूप में जाना जाता था। आर्कटिक को सोमगिरी के रूप में जाना जाता था।26
महाकाव्यांे में मध्य एशिया
दो महाकाव्यों, वाल्मिकी के रामायण और महाभारत में अनेक बार उत्तर कुरू और सोमगिरी का उल्लेख हुआ है। वाल्मिकी के रामायण मेें इस क्षेत्र का ग्राफिक्स चित्र आया है।27 सीता की खोज हेत1ु बंदरों को उत्तर दिशा में भेजते समय सुग्रीव भूमि मार्ग और बीच में आने वाले देशों के बारे में बताते हैं। अन्य बातों के साथ-साथ वे उन्हें निर्देश देते हैं कि वे लोग सीता की खोज दर्दा, कम्बोज, यवन और शक भू-प्रदेश और शहरों में भी करें।28 वे उत्तर कुरू और सोमतिगरी (आर्कटिक प्रदेश) का वर्णन इस प्रकार करते हैंः- ”वहाँ रास्ते में समुद्र है और सोमगिरी सबसे उत्तर में अवस्थित है रास्ता अत्यंत दुर्गम है। उस प्रदेश में सूर्य की पहुँच नहीं है और वहाँ रोशनी की कमी है वहाँ कोई राष्ट्रीय सीमा नहीं है।29 जैसा कि महाभारत मंें वर्णन है कि अर्जुन उत्तरी समुद्र से युधिष्ठिर के अभिषेक के लिए जल लेकर आते हैं।30 उसके चारों ओर मेरू (पामीर), मेरूवर्षा होने का वर्णन है और साथ ही यह भी उल्लेख है कि उसके पूर्व में भद्राश्वा और उत्तर में उत्तर कुरू है।31 समुद्र मंथन के बारे में निर्णय लेने हेतु देवों (भगवानों) का सम्मेलन मेरू पर्वत पर हुआ।32
क्लासिक (शास्त्रीय) भारतीय साहित्य में मध्य एशियाई लोगः
मध्य एशिया के लोगों को न केवल प्राचीन समय में भारतीयों द्वारा जाना जाता था अपितु वे भारतीय सामाजिक प्रणाली के हिस्सा थे। महाभारत इस बात पर बल देता है कि मध्य एशिया में शक, दरद, पहल्व, किरात, और परदा समुदाय जन्म से ही क्षत्रिय थे जैसा कि कहा जाता है।33 मनु स्मृति भी इसी बात को कहता है, जिसके अनुसार शक एवं यवन, निम्न स्तर क्षत्रिय थे जिनकी स्थिति और स्तर वृृशला ;टतपेींसंद्ध (वृश्ला) हो गया था।34 इस मामले में इस बता पर ध्यान देना चाहिए कि सागर गाथा का विस्तृत वर्णन महाभारत और पुराणों में आया है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सागर राम के पूर्वज थे जिनका जन्म राम से 24 पुस्तक पहले हुआ था।35 सागर के पिता बाहु (असीता) को हैहया और तलाजंधा क्षत्रियों द्वारा शकों, यवनों, कम्बोजों, परादो और पहल्वों के साथ मिलकर परास्त किया गया और राज्य से बाहर निकाल दिया गया जिसके बाद वे जंगलों में चले गए और एक ऋषि के आश्रम में रहे जहाँ सागर का जन्म हुआ। जब सागर व्यस्क हुए और जब उन्हें परिवार के साथ हुए अन्याय का पता चला तब उन्होंने अपने पिता के दुश्मनों से बदला लिया। उसने हैहया और तलजंघा को एक युद्ध में परास्त किया और उनके सहयोगियों का भी वध करना चाहा। सागर के गुरु वशिष्ठ ने किसी तरह उन्हें मनाया और उन लोगेों को माफ करने के लिए कहा। परंतु वशिष्ठ द्वारा सुझाए गए अनुसार उन लोगों को अपने धार्मिक कत्र्तव्यों का त्याग करना पड़ा और इस प्रकार उन्हें जीते जी मृत घोषित कर दिया गया। जीवनमृत, ऐसे लोग जिन्हें मृत की भांति जीवित रहते हुए कर्तव्यों को त्यागने के लिए कहा गया हो। शक, यवन, कम्बोज, परादा और पहल्व, वृश्ला (वृत्या, निम्न स्तरीय क्षत्रिय, क्षत्रिय शूद्र) बन गए।36
इस संदर्भ में इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि सागर की किवदंती दो सम्भावनाओं को इंगित करती हैः 1ः भारत की राजनीतिक, भाषिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सीमा हिमालय, पामीर और हिंदूकुश से आगे तक फैला गया, तथा 2ः भारत से मध्य और पश्चिमी एशियाई समुदायों का पलायन होने लगा। वास्तव में पतंजलि के अपने महाभास्य में शक और यवन को भारत से प्रवासित जाति माना है।37 यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि महाभारत बनजातियों के उल्टे सामाजिक आवागमन का बारंबार जिक्र किया गया है। इसके अनुसार शक, यवन, कम्बोज और महाशक क्षत्रिय ब्राह्मणों से संपर्क का लाभ न उठाने के कारण वृश्ला बन गए, 38 तुषार और अन्य उचित व्यवहार की कमी के कारण निम्नस्तर हो गए, 39 कुछ और क्षत्रिय समुदाय भी ब्राह्मणों के साथ ईष्र्या के कारण निम्नस्तरीय बन गए।40
मध्य एशियाई समुदायों का महाभारत युद्ध तथा युधिष्ठिर के राजस्य यज्ञ में भाग लेने का जिक्र महाभारत में अनेक बार आया है। द्रौपदी के पिता और पांडवों के ससुर पंचाल के राजा द्रुपद युधिष्ठिर को यह कहते हैं कि वे मध्य एशिया के-शक, पहल्व, रिसिक और दराद राजाओं को पांडवों की तरहफ से महाभारत युद्ध में भाग लेने के लिए आमंत्रित करें।41 वास्तव में युधिष्ठिर ने ऐसा करने में बहुत देर कर दी। कम्बोज ने एक अकसौहिनी सेना, शक और यवन सेना के साथ मिलकर कौरवों की ओर से युद्ध में भाग लिया।42 सुदकसिना का दुर्योधन द्वारा दस में से एक सेना का सेनाध्यक्ष बनाया गया।43 तुषार (चीन का येह-ची, कनिष्ठ समुदाय के कुशाण) ने भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ा।44 वे क्रूर योद्धा थे।45 युधिष्ठिर के राजस्यु यज्ञ में तुषार भी मौजूद थे।46 जैसा कि महाभारत में जिक्र है कि अर्जुन उत्तर कुरु से श्रद्धांजलि लाए।47 तथा दूसरे पांड योद्धा नकुल ने हूणों, पहल्वों, यवनों और शकों को परास्त किया।48 युधिष्ठिर को उत्तर कुरु से श्रद्धांजलि प्राप्त हुइ।49 शक, हूण, तुषार ने युधिष्ठिर को श्रद्धांजलि अर्पित की।50 तुषार गिरि (तुषार पर्वत) का जिक्र महाभारत, हर्षचरित्र और काव्य मिमांसा में हुआ है।51 यह सत्य है कि चाक्सु नदी (ओक्सस अथवा आमु दरिया) से होकर बहती थी जैसा कि वायु और मत्स्य पुराण में उल्लेख किया गया है और इससे इन समुदायों की भौगोलिक अवस्थिति का पता चलता है।52
कंक सोग्डियनों का नाम है अर्थात् समरकंद के लोग। महाभारत में यह नाम अन्य मध्य एशियाई समुदायाों के साथ आया है। एक स्थान पर इसका नाम शक, तुषार (शक, तुषारह, कंकश) के साथ आया है, 53 वहीं दूसरी ओर इसका नाम शक, तुषार और पहल्व (शक, तुषारह, कंकश, पहल्वाश) के साथ आया है।54 भगवत पुराण में कंक का नाम दो बार कीरात, हूण, यवन, खास और दूसरों के साथ आया है, 55 और फिर इसका नाम कीरात हुण, खास, शक और दूसरों के साथ आया है।56 महाभारत में आमतौर पर एक जैसी जनजातियों को एक साथ रखा गया है, केवल सामाजिक कारकों के मामलों को छोड़कर।
समरकंद के आसपास क्षेत्र के निवासियों को सोग्डियन के रूप में जाना जाता था। महाभारत में इन लोगों को तुषार, यवन और शक के साथ कुलीकस ;ानसपांेद्ध के रूप में वर्णन किया गया है जो युद्ध में सेना के दाहिने हिस्से पर कब्ज़ा किए हुए थे।57 मार्केंडेय पुराण के अनुसार कुलीकस का वर्णन भारत के उत्तरी सीमा में रहने वाली जनजातियों जैसा कि लम्पकस, कीरात कास्मीरा, आदि के साथ किया गया है।58 मत्स्य पुराण के वर्णनानुसार कुलीकसों ने कलयुग (अंधकार युग) के दौरान भारत के एक कोने में अपने साम्राज्य की स्थापना की।59 यह भी इनके नाम का उल्लेख अपरंतिका, पंकादका, तारकसुर और कुछ अन्य जनजातियों के साथ करता है।60 ब्रह्म पुराण में इन्हें सुलिका तथा ब्रह्माण्ड पुराण में झिलिका कहा गया है तथा अन्य पांडुलिपियों में इन्हेें कुलीकम, वुलिका, वमिका, वुतिका और वर्लिका कहा गया है। विभिन्न प्रयोगों के दौरान कुलीका, कुइका, सुलिका नामों में से ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला नाम कुलिका और सुलिका है। सुलिका का उल्लेख कुलिका की भाँति तुकारस, भवन, पहल्वा, सिनास आदि के साथ किया गया है जो काक्यु नदी (वकसु, ओकस्स) नदी द्वारा सिंचित देश में रहते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार वे उत्तर में रहते थे जबकि वृहत-संहिता के अनुसार उनका स्थान उत्तर-पश्चिम का जिसका उल्लेख वृहतसंहिता में छह बार आया है।61 इस समुदाय का वर्णन चरक संहिता और विभिन्न लेक्सिकानों जैसी किताबों में किया गया है।62 चरक में यह नाम बहलिका, पहलिका, पहलव, सिना, यवन और शक के साथ आया है।63
एक संस्कृत-चीनी शब्दावली (फा-यु-सा-मिंग आॅफ लियेन) और एक अन्य खं डमें सूरी (त्रसूली) के समकक्ष शब्द ‘हू’ (उस अवधि के दौरान चीनियों द्वारा सोग्डियनों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द-जंगली) दिया गया है। इसका जिक्र पारसी (परसिका), तुरुस्का गाना (तुरुस्का), कारपिस्या (कपीस), तुखरा कुसिनान (कुचा) आदि के साथ किया गया है। तिब्बती और पहलवा उन्हें सुलिका (सुलिक भी) और पहलवा सुरक (जिसे सुलिक कहा जाता था) कहते थे। उपर्युक्त सभी तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय साहित्य में नामकरण में विभिन्नता काॅपियरों (प्रतिपक्षों) की लापरवाही और ध्वन्यात्मक विभिन्नता के कारण होती है जैसा कि ‘स’ ‘स्’ और ‘च’ के विनिमय में मध्य-इंडो-आर्यन में और यहाँ तक भी भारत में सामान्यतः अंतर दिखाई पड़ता है। इसलिए सोग्डियन नाम सुलिक और सूलिक ध्वन्यात्म रूप से कलिक और कुलिक में बदल सकते हैं। इसलिए चुलिका का अस्तित्व (सुलिका और सूलिका के इसके विभिन्न रूपों के साथ) सोग्डियन के साथ काफी स्पष्ट है। कुलिका-पैसासिक प्राकृत (चुलिका पैसाकी), जैसा कि कहीं और चर्चा की गई है, सोग्डियनों की भाषा के रूप में, उत्तर-भारत में बोली जाने वाली प्राकृत भाषा का एक रूप हो सकती है। जैसा कि प्रसिद्ध है कि, सोग्डियन, मध्य एशिया और चीन में प्रत्येक जगह अपने उपनिवेशों वाले व्यापारी थे। यहाँ तक कि वे भारत तक पहुँच गए और उनका अस्तित्व चालुक्य वंश, सोलंकी राजपूतों और पंजाब से कुछ अन्य समुदायों के साथ उचित ढंग से बताया गया है। इस घटना को न केवल सांस्कृतिक और भाषाई निरंतरता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए बल्कि इसे भारत और मध्य एशिया के बीच जातीय निरंतरता के रूप में भी देखना चाहिए।
वाल्मिकी के रामायण में कम्बोजों, यवनों, शकों, परादों और मल्लेच्छों का मिथक मूल वशिष्ठ ऋषि दैव्य शक्तियों के माध्यम से कामधेनु को बताया गया है।64 यहाँ यह भी बताया गया है कि अयोध्या में राजकुमारों और कम्बोज और बहलिका (बैक्ट्रिया) से घोड़ों (अश्वों) को लाया गया।65
जैसा कि ऊपर बताया गया है, मध्य एशिया के लोगों और भूमि के बारे में काफी जानकारी शास्त्रीय भारतीय साहित्य में उपलब्ध है। राजशेखर का काव्य मिमांसा, कल्हण का राजतरंगिनी और अन्य ग्रंथ, संस्कृत और बौद्ध गद्य कथा और दंत कथा आदि बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। गुनाध्या का बृहतकथा, सोमदेव का कथा-सरित सागर, क्षेमेन्द्र का वृहत-कथा-मंजरी तथा इसका जैनी अनुवाद (रूपांतरण)-वसुदेव-हिंदी, कालीदास के महाकाव्य और नाटक, खासतौर से मेघदूत और विक्रमोवर्शियम भारत के पड़ोसी-हिमालय और उत्तर-कुरु के बारे में पर्याप्त जानकारी प्रदान करते हैं।66
राजशेखर अपने काव्य मिमांसा में मध्य एशियाई समुदायों की एक विस्तृत सूची प्रदान करते हैं जिसमें शाक, तुसार, वोकन, हूण, कम्बोज, बहुलिका, पहलवा, तंगना, लिम्पक, तुरूस्का आदि शामिल हैं।67
जैसा कि कल्हण के राजतरंगिनी में उल्लेख किया गया है, कश्मीर के राजा ललितादित्य मतुक्तपिड ने अपने उत्तरी और उत्तरी-पश्चिमी पड़ोसियों-कम्बोज, तुषार, दरादों, स्त्रीराज्य, उत्तर कुरु आदि के विरूद्ध युद्ध किया।68 उन्होंने हूणों को भी युद्ध में अपमानित किया।69
क्षेमेन्द्र70 और सोमदेव71 ने अपनी कृतियो में, जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, राजा विक्रमादित्य के सफल युद्ध प्रयासों का वर्णन किया है कि उन्होंने उन आक्रमणकारियों के विरुद्ध लड़ा जो भारत पर उत्तरी पहाड़ियों की ओर से कर आक्रमण कर रहे थे।
कालीदास ने अपने मेघदूत, विक्रमोवर्शियम तथा रघुवंश में भारत के उत्तरी पर्वतों हिमालय और उत्तर कुरु का ग्राफिक चित्त प्रस्तुत किया है। रघुवंश में उत्तरपथ (उत्तरी क्षेत्र) के परासिका (फारसियों), हूणों और कम्बोजों के विरुद्ध राजा रघु के युद्ध प्रयासों का वर्णन किया गया है।72
विशाखदत्त का बौद्ध नाटक मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त के हिमालय के राजा ‘पर्वताक’ के साथ गठबंधन के बारे में जानकारी दी गई है जो उन्होंने शाक, यवन, कम्बोज, कीरात, परसिया और बहलिकाओं के विरुद्ध किया।73
सूत्र अलंकार के अनुसार पुष्कालावती के एक चित्रकार ने अशमाक नामक देश का दौरा किया, अश्माक का तात्पर्य पत्थर का पथरीला है, और उसने बौद्ध मठ को सजाने का कार्य किया। उस देश की पहचान ताशकंद के साथ की गई है। इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि एक परंपरा है कि सूत्रालंकर (सूत्रालंकार) को अश्वघोष द्वारा लिखा गया। अन्य विद्वान इसका लेखक कुमारलट को मानते है।
यहाँ इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि ताशकंद के ताश शब्द का संबंध पत्थर से है। इसका प्राचीन नाम ‘छच’ है; बुल्लीब्लैंक ने ‘पत्थर’ के लिए येनिशियन शब्द से इसे जोड़ना चाहता था; येनिशियन शब्द थे-केट, टाई, काॅट, शीश पम्पोकील्स्क सि सवह इसे पाँचवीं अथवा छठी शताब्दी में सोग्डियन पर हूनों के कब्जे के अवशेषों के रूप में देखता है। हालांकि शपूर-प् (240-272 ई.पू.) के लेखों में इस शब्द का उल्लेख मिलता है कि इसके पास प्राचीन मुद्रा थी। प्राचीन चीनी लेखों में ताशंकद का उल्लेख हाइरोग्लिफ ‘शिश’ के रूप में मिलता है, जो पत्थर होता है। टर्किक ताश ‘पत्थर’ से संबधित नाम प्रारंभिक प्राचीन नामांे का अनुवाद हो सकते हैं। प्राचीन नाम ‘छच’ का अनुवाद हो सकते हैं। प्राचीन नाम ‘छच’ का तात्पर्य भी ‘पत्थर’ होता था। चीनी स्रोतों के अनुसार इस क्षेत्र के निवासी चियांग चू अथवा कियांग चू थे। ये संभवतः तुखारियन मूल के हो सकते हैं। तुखारियन मंे कियांग का तात्पर्य किसी प्रकार के पत्थर से है। हिंदी में कंकर का तात्पर्य पत्थर होता है। जैसा कि पहले चर्चा किया जा चुका है कि भारतीय साहित्य में सोग्डियन के लिए कंक शस्त्रंश और ताशकंद के लिए अस्माक शब्दांश का उल्लेख है।74 ताशकंद, समरकंद, यारकंद का कंद अथवा कंत शब्द संस्कृत के कंथ शब्द के जैसा समानार्थक होता है। पाणिनी के अष्टाध्यायी में यह शब्द आया है। ‘काशिका सूत्र’ शब्द ‘शहर’ अथवा ‘नगर’ को दर्शाता है। मुझे यह बताया गया है कि ताशकंद और यारकंद को क्रमशः दक्षिकंथ और यहवरकंथ के रूप में जाना जाता था। तुर्क शब्द के लिए संस्कृत में तुरूक्षा शब्द है। इस नाम का प्रथम शब्दांश शास्त्रीय भारतीय साहित्य के ‘तुरवासु’ नाम में पाया जाता है। दूसरा शब्दांश ‘स्क’ ;ेांद्ध अतिसंवेदनशनील प्रत्यय है जो कनिष्क के नाम में है; ‘कनिस्क’ का तात्पर्य ‘कनिष्ठ पुत्र’ होता है।75
मध्य एशिया के अनेक देशों और स्थानों का आखिरी शब्दांश ‘स्तान’ (संस्कृत का ‘स्थान’ और फारसी का ‘स्तान’) है। कुछ पुराने भौगोलिक नाम बदल गए हैं, (कुछ दूसरे नाम का प्रयोग आज भी मामूली बदलाव के साथ किया जा रहा है।) आज चीनी तुर्कीस्तान की ‘सीता’ नदी तारीन नदी कही जाती है; खोताम्न और कुस्तन अब खोतान कहलाता है; गंधार, कुभा, गोमती और वाक्सु अब कंदहर, काबुल, गोमल और आॅक्सस के रूप क्रमशः बदल गए हैं। शाक, कुषाण, हूण आदि नामों का प्रचलन आज भी जारी है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हो सकते हैं। भारतीय मिथक के अनुसार कश्यप (कश्यपा) जीवित विश्व के पूर्वज और द्रष्टा थे; भृगु (भ्रगु) एक द्रष्टा थे। ‘कैस्पीयन समुद्र’ और फ्रिगिया (ग्रीसवासियों द्वारा फ्रूगिया कहा जाता है।) हमें क्रमशः कश्यम‘’ और ‘भृगु’ का स्मरण करवाते हैं। हमें इस बात की जाँच करनी चाहिए कि क्या फोनिशियन का फोनिक का संबंध संस्कृत के बानिक,(व्यारियों) से तो नहीं है।76
फ्रांस की ओक्सिटन भाषा की तरह है भोजपुरी भाषा
'अर्वाचीन मराठी नामक पुस्तक में 'मराठी व इतर भारतीय भाषाओं का जिक्र इस मानचित्र में दिया गया है जिसे भलीभांति देखा जा सकता है कि इस नक्शे में बिहार प्रांत में बिहारी, भोजपुरी, मैथिली और माघी (मागही) को भाषा के रूप में रेखांकित किया गया है। स्पष्ट है कि राष्ट्रीयता के नाम पर इन क्षेत्रों में हिंदी को थोपा गया और इन क्षेत्रों की भाषाओं को हिंदी की बोलियों में तब्दील कर दिया गया।
सत्ता और सत्ता के संचालक एलिट और निरंकुश सोच से चलते है। वे लोकतंत्र की बात करेंगे, विविधता को स्वीकार करने की बात करेंगे परंतु वास्तविकता यह है कि वे अपनी सोच में यथास्थितिवादी हैं। दूसरों को हिंदी और अंग्रेजी की बाइनरी में उलझा देंगे और कोशिश करेंगे उनकी मातृभाषाओं की वहां चर्चा ही ना की जाए यानी भाषाई लोकतंत्र उस डिस्कोर्श का हिस्सा ही नहीं होता।
माना जाता है कि फ्रेंच बहुत पुरानी और बहुत सुसंस्कृत भाषा है और फ्रांस जैसे देश में राज वही कर रही है परंतु सच यह नहीं है, फ्रेंच ने भी वहां के सत्ता के दंभ और दबाव से वहां की अनेक मातृभाषाओं का दमन किया है जैसा चीन द्वारा मंदारिन को पूरे देश में थोपने के कारण अनेकानेक भाषाओं दमन हो रहा है। सत्ता ही भाषा को संपोषित करती है यह फ्रेंच के मामले को पढ़ने पर पता चलता है।
11 वीं सदी के आस पास दक्षिण फ्रांस की सामान्य भाषा (Lingua Frenca) ओक्सिटन (Occitan) हुआ करती थी। इस भाषा में अनेक खूबसूरत गीत है जो कर्णप्रिय और मधुर गीत है इनकी उपलब्धता इस भाषा की देन है जिसे वहां के भाटगण भी लोकगीत के रूप में सुनाते थे लेकिन 1539 के आसपास किंग फ्रेंकोआइस ने एक कानून ला कर देश में पेरिस की एक भाषा उत्तरी फ्रेंच को देश की भाषा घोषित कर दिया। नतीजा यह हुआ कि ओक्सिटन भाषा घर की भाषा, खेत की भाषा, लोकगीत की भाषा तक सिमट कर रह गई। डिस्कवरी ऑफ फ्रेंच नाम पुस्तक में ग्राहम रॉब लिखता है कि फ्रेंच को बनने और मानकीकरण में तकरीबन तीन सौ साल लगे थे।
लेकिन बात यही खत्म नहीं हो जाती है। जैसे बिहार या पूर्वाचल का एक बड़ा हिस्सा भोजपुरी बोलता है वैसे ही ओक्सिटन दक्षिणी फ्रांस की भाषा है भोजपुरी की तरह वहां की आबादी का लगभग 90 प्रतिशत लोग प्रयोग करते हैं।
बताते हैं कि 20वीं सदी के आते आते, ओक्सिटन सहित अनेक भाषाओं को दमन करने का काम फ्रांस की केंद्रीय सरकार ने शुरू किया और लगभग 100 वर्षों तक यह दमन चक्र चलता रहा। वैसे ही जैसे देश की आजादी के बाद हिंदी अपने जद में अनेकानेक भारतीय भाषाओं को शामिल कर के उसके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। इसको समझना है तो 2001 और 2011 के भाषाई जनगणना को देखना आवश्यक है कि कैसे इन दस वर्षों में हिंदी ने 48 भाषाओं से बढ़ते हुए अब 57 और करोड़ों की संख्या वाली अन्य की कोटि में शामिल भाषाओं को निगल लिया है चूंकि वे पच नहीं पा रही हैं अत: वे स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं कि कैसे सत्ता ने भाषाई लोकतंत्र का गला घोंटा है।
भोजपुरी की पढ़ाई जैसे बाधित की जा रही है उसी तरह ऑक्सिटन को पाठ्यक्रम से बाहर किया गया और ऐसी स्थिति हिंदी में भी है कि भोजपुरी को बोली बता कर हिंदी भाषा वर्ग में रखा तो गया है पर हिंदी साहित्य के मूल पाठ्यक्रम में भोजपुरी का साहित्य ढूंढते ही रह जायेंगे।
धीरे धीरे फ्रेंच सरकार ने ओक्सिटन का प्रयोग करने वाले बच्चों को दंडित करना शुरू किया वैसे है जैसे हमारे बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में भोजपुरी बोलने वालों बच्चों को लोकल प्राइवेट स्कूल दंडित करता रहता है। ओक्सिटन भाषा के साथ इस तरह के व्यवहार ने बच्चों और लोगों में अपनी भाषा के प्रति शर्म की भावना, हीनता का भाव उत्पन्न होने लगा आज भी दक्षिणी फ्रांस के बुजुर्ग अपने स्कूली दिनों के दौरान हुई भाषाई हिंसा को याद कर के भावुक हो जाते हैं कि कैसे उनको अपनी मातृभाषा ओक्सिटन बोलने पर बेइज्जत किया जाता था, प्रताड़ित किया जाता था और उनको नीचा समझा जाता था।
बहरहाल,अब यह मामला बदलने लगा है वैसे ही जैसे भोजपुरी में बदल रहा है। 1950 के बाद फ्रेंच सरकार ओक्सिटन को पुन: पब्लिक स्फीयर में लाना शुरू किया है यही नहीं, वहां इसकी अब पढ़ाई हो रही है। भारत में भोजपुरी की पढ़ाई तो बहुत बाद में शुरू हुई है परंतु आज भी हिंदी के साम्राज्यवाद से भोजपुरी दबी हुई है भोजपुरी बोलने वाले लोग इस मुद्दा पर सक्रिय है परंतु सत्ता में मुर्दा शांति है। ऐसा होना भाषाई लोकतंत्र की स्थापना के सपने को साकार करने के रास्ते को बंद कर देता है फिर भी उम्मीद है ओक्सिटन की तरह भोजपुरी भी अपना अधिकार लेगी।
बहुत दिनों बाद प्याज को चैलेंज करने वाला कोई सामने आया है ।
बहुत दिनों बाद प्याज को चैलेंज करने वाला कोई सामने आया है ।प्याज दो और प्यार लो नहीं चलेगा ।अब नीबू का ज़माना है ।रुपया तो डॉलर के सामने हमेशा डरा सहमा सा रहता है ।पहले उसे प्याज ने चैलेंज दिया था ।अब नीबू इसकी बैंड बजा रहा है ।एक डॉलर में एक पाव नीबू । एक किलो नीबू के लिए चार डॉलर खर्च करना होगा ।इसके पीछे भी लॉजिक है । चार दिशाएं,चार धाम और लोकतंत्र के चार स्तंभ (न्याय पालिका,कार्य पालिका ,विधायिका और पत्रकारिता ) ।लोहिया का चौखंभा राज । मतलब नीबू का रेट जो सेट किया गया है ,वह आस्तु,वास्तु ,तथास्तु और ज्योतिष विद्या के अनुसार ही किया गया है । आपने देखा होगा कि कई घरों के बाहर मिर्ची के साथ नीबू को लटकने का सौभाग्य प्राप्त होता है ,नज़र से बचाने के लिए । लेकिन आजकल नज़र से बचना मुश्किल ही नहीं नामुकिन है।
नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर ।
आजकल सरकार से लेकर फेसबुक,गूगल सब नज़रें लगाकर रखते हैं ।किससे मिले, किसके पास गए,क्या बात की ,क्या खाया ,क्या पिया? सब कुछ पता है । सबकुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है, जो इंसान की निजी बात है वह पब्लिक हो रही है जो पब्लिक है उसे प्राइवेट किया जा रहा है ।
हरि अनंत हरि कथा अनंता
समझ बूझ न पावे जनता ।
मुश्विल ही मुश्किल है जिसको नज़रें मिलानी चाहिए वो नज़रें हटा लेता है और जिन्हें नज़रे हटानी चाहिए वो नज़रें गड़ा कर बैठा है।
अब नज़रे मिलीं दिल धड़का ,मेरी धड़कन ने कहा
लव यू राजा ' नहीं बल्कि अंदर आजा(जेल) कहा जा रहा है ।ऐसी नज़रों की नज़र न लगे ।ऐसी नज़रों को नज़र लग जाए बस जिससे उनकी नज़रें ख़राब हो जाएं।
अब काश उनसे नज़रे मिली होतीं और उन्होंने कुछ कहा होता! अब हर काश में आस नहीं दिखती ।कुछ काश बस काश बनकर ज़िन्दगी भर तड़पाते रहते हैं ।
प्याज के बाद नीबू और क्या उसके बाद मिर्ची का नंबर आएगा और डॉलर के भाव बिकेगी ? प्याज और नीबू दोनों ठहरे मेल पहले बाज़ी मार ले गए जबकि मिर्ची के बिना प्याज बहुत कुछ नहीं कर सकता है ।दोनों हर जगह साथ साथ होते हैं सलाद में भी और सब्जी में भी ,लेकिन यहाँ प्याज के बाद नीबू बाज़ी मार ले गया ।क्या कारण हो सकता है ? ऐसा तो नहीं कि जैसा आम ज़िन्दगी में होता है वही यहाँ हुआ है।
पूछने को तो बहुत कुछ है लेकिन पूछना मना है ।अब कोई पूछे प्याज और नीबू होता है और मिर्ची होती है तो क्यों होती है ? मिर्ची भी होता क्यों नहीं है । मिर्ची कैसे स्त्रीलिंग हो गई । राम खाता है और सीता खाती है ।
तो जिससे पूछेंगे उसे मिर्ची लग जाएगी और इसकी कुछ समाज शास्त्रीय व्याख्या देकर वह महापंडित हो जाएगा। अब हिंदी माता की संतान पुरुष और स्त्री में ऐसे ही भेद विभेद और संधि विच्छेद करते हैं तो क्या करें?
नीबू का प्याज को टक्कर देने का यह भी अर्थ माना जा सकता है कि सबको मौके दिए जा रहे हैं । हर कोई विकास करेगा ।पहले प्याज ने विकास किया ,आज नीबू कर रहा है और क्या पता साल दो साल में मिर्ची जी का नंबर हो । और एक मिर्ची एक डॉलर की मिलें ।वह दिन इस देश के लिए स्वर्णिम होगा ।जिस देश के पास ज़्यादा मिर्ची वह ज़्यादा धनी ।मिर्ची को विकास का पैमाना माना जाएगा और मिर्ची का गाना गाया जाएगा ,तुम्हे मिर्ची लगी तो हम क्या करें?
तेज
भोजपुरी के संवैधानिक मान्यता के आश्वासन।
भोजपुरी भाषा के बढ़त प्रभाव में भोजपुरी सिनेमा के योगदान आ भोजपुरी भाषा के वैश्विक पूंजीवाद से करत प्रतिवाद के प्रशंसा में प्रो व्हिटनी कॉक्स जे यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो में एसोसिएट प्रोफेसर पदस्थापित बाड़न लिखत बाड़न कि -'दुनिया के कई गो छोटहन छोटहन भासा खत्म होखत जात बाड़ी सन ओकर कारण बा बड़हन बड़हन मीडिया के संख्या आ वैश्वविक पूंजीवाद बाकिर एकरा में एगो प्रतिरोधी प्रवृति के उभारो भइल बा जैसे भोजपुरी एगो अइसन भासा बा जवन इंटरनेट के माध्यम से आ आपन गीत-संगीत-सिनेमा में के बढ़त चलन के चलते आपन देस आ प्रवासियन के बीच बहुत लोकप्रिय हो रहल बा।' इहे बात पीएलएसआई (पीपुल लिंगिविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया) के अध्यक्ष प्रो गणेश देवी के मानल बा कि 'भोजपुरी भारत के सबसे तेजी से बढ़े वाला भासा बा बाकिर ओकर मूल राज्य उत्तर प्रदेश आ बिहार में आजो ओकरा द्वितीय राजभासा के दर्जा नइखे एही से ओकर विकास के रुकावट आ रहल बा।'
विदित होखे कि भारत सरकार के भाषा सर्वेक्षण 2011 के रपट आ गइल बा। भोजपुरी समाज में आपन माई भाषा के प्रति जागरण देखल जा सकेला। बहुत खुशी के बात बा बाकिर जागरण के जरूरत अभियो महसूस हो रहल बा बाकिर भोजपुरी बोलनिहार के संख्या में 1999-2001 के बनिस्पत 2001- 2011 में एक करोड़ सत्ताईस लाख अस्सी हजार(12780000) के बढ़ोतरी भइल बा।
2001 में भोजपुरी के पहिल मातृभाषा के रूप में 39,445 300(यानि तीन करोड़, चौंरानबे लाख पैतालीस हज़ार आ तीन सौ लोग बोलनिहार रहे जबकि दूसरकी मातृभाषा के रूप में 74,100( चौहत्तर हज़ार आ एक सौ) लोग बोलनिहार रहल। बाकिर भाषा सर्वेक्षण आपन रिपोर्ट में 37,800,000 ( तीन करोड़ आ अठहत्तर लाख) बतवले रहे।
2011 में भाषा सर्वेक्षण के रपट बतलावत बा कि भोजपुरी बोलनिहार के संख्या 50, 580, 000 ( पांच करोड़, पांच लाख आ अस्सी हज़ार) बा। मतलब भारत के जनसंख्या के 4.18% भोजपुरी भाषी बाड़न। एकरा से ई बात साबित हो रहल बा कि भोजपुरी भासी लोगन में आपन के दिसाई जागरूकता बढ़ल बा। बाकिर भारत सरकार के एकरा संवैधानिक मान्यता से अभियो वंचित रखले बिया।
जब कबो एकर माँग भइल सरकार के ओर से कवनो ना कवनो कमिटी के पेंच में एकरा फंसा दिहल गइल। देश के संविधान लागू भइल त 14 गो भासा के संविधान के अष्टम अनुसूची में शामिल कइल गइल तब ना कवनो मापदंड रहे ना कवनो कवनो कमिटी रहे। इहो सच्चाई बा कि देश के राजकाज के भाषा खातिर संविधान सभा में बहुत जिरह भइल, चर्चा भइल आख़िर में हिंदी राजकाज के भाषा, देवनागरी लिपि आ रोमन के संख्या तय भइल। बाबा साहेब आंबेडकर जी के संविधान सभा में कहले रहीं कि - संविधान के कवनो अनुच्छेद तय करे में एतना विवाद ना भइल रहे जेतना हिंदी के सवाल पर अनुच्छेद 115 खातिर भइल। एतना प्रतिरोध, एतना बकझक।
खैर हिंदी के अलावा बाकिर 13 गो भासा में कवनो प्रतिवाद ना भइल। बाद में चल के
1967 में सिंधी भासा, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी आ नेपाली 2004 में बोड़ो, डोगरी,मैथिली आ संथाली के संवैधानिक मान्यता मिलल। ओह बेरा ना कवनो कमिटी बनल ना कवनो मापदंड तय भइल। बाकिर भोजपुरी खातिर सभ तरह के मापदंड तय करे ला कमिटी पर कमिटी बनल।
1996 में अशोक पावहा कमिटी बनल। जेकरा संविधान के अष्टम अनुसूची में शामिल करे खातिर भाषा के का मापदंड होई, एहपर विचार कर के आपन अनुशंसा देवे के कहल गइल।
पावहा कमिटी के जवन टर्म्स ऑफ़ रिफरेन्स आ क्राइटेरिया तय के कइलस देखीं। उ कहलस कि राज्य के राजभाषा के आठवीं अनुसूची में जगह एह शर्त पर दिहल जा सकेला जदि उ उहाँ के लमहर जनसंख्या के भासा होखे। कहे के मतलब साफ़ बा कि पावहा कमिटी के सिफारिस संविधान के अनुच्छेद 347 के दिहल उपबंध के मान रहल बिया।
जेकरा में राज्य के जनसंख्या के कवनो अनुभाग द्वारा बोलल जायवाला भासा के सम्बन्ध में उपबंध दिहल बा।
अब आई 2003 में बनल सीताकान्त महापात्रा के कमिटी पर। 2004 में ई कमिटी आपन सिफारिस सरकार के दे देहलस। 17 साल हो गइल अभी ले ई ठंडा बस्ता में बा। लब्बोलबाब ई बा कि दुनु कमिटी के रिपॉर्ट के आधार पर भोजपुरी के मांग बरियार बा।
26 जुलाई 2016 के गृह राज्य मंत्री किरण रिजूजू के कहनाम बा कि भोजपुरी समेत 38 गो भाषा आंठवी अनुसूची में विचाराधीन बाड़ी स। ऊपर के दुनु कमिटी के प्रयास असफल बा।
कहे ना होई कि भोजपुरी भाषी धरती परम्परा से आन्दोलन के धरती रहल बिआ बाकिर अपना भाषा के, सहित्य आ संस्कृति के लेके एकरा आन्दोलन के सुगबुगाहट आज़ादी के लड़ाई के संगे संगे शुरू भईल। ओह आन्दोलन के सूत्रधार लोग में प्रमुख रहीं - बहुभाषाविद आ बहुमुखी प्रतिभा के धनी महापंडित राहुल सांकृत्यायन, पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी, डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल, परमेश्वरी लाल गुप्त, वगैरह .चतुर्वेदी जी सन 1934 ई कलकत्ता के 'विशाल भारती' में एह आन्दोलन के ऊपर एक लेख लिखनी।
भोजपुरी के पक्ष में सबसे पहले सुगबुगाहट त 10 मार्च 1940 में कुंडेश्वर (टीकमगढ़) में आयोजित ब्रज और बुंदेलखंड से आइल कार्यकर्ता लोगन के बैठक से भइल फेर 1942 में एह आन्दोलन से जुडल अग्रवाल जी एगो योजना बनवानी की पूरा जनपद के एक एक इकाई मान के उहाँ के भाषा, साहित्य, संस्कृति आ लोक साहित्य आदि के विधिवत अध्ययन हिंदी के जरिये होखे के चाहीं बाकिर राहुल जी एकरा से भिन्न विचार राखत रही उन्हा के विचार रहे कि भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के बात भोजपुरिये में होखे के चाहीं . उहाँ के आपन विचार 'हंस' पत्रिका के माध्यम से 1943 ई में लोगन के बीच पहुचा देनी जवना में भाषा के आधार पर राज्य के पुर्नगठन, ओह राज्य के शिक्षा के माध्यम उन्ह्वे के भाषा के बनावे आ ओह भाषा के सरकारी भाषा बनावे के पक्ष में आपन विचार देलन।
सन 1944 में बनारसी दास चतुर्वेदी के आग्रह पर गणेश चौबे जी भोजपुरी साहित्य मंडल के स्थापना खातुर ‘आज’ आ ‘नवशक्ति’ में तीन –चार लेख लिखा. ओही समय भोजपुरी क्षेत्र में डॉ उदय नारायण तिवारी, डॉ परमेश्वरी लाल गुप्ता, पंडित महेंद्र शास्त्री, श्री कुलदीप नारायण ‘झड़प’, दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ‘नाथ’ एह खातिर आपन आपन क्षेत्र में सक्रीय रहे लोग. सन 1947 ई में एह विद्वान लोग के अथक प्रयास के बाद सिवान में पहिला भोजपुरी प्रांतीय साहित्य सम्मेलन का गठन भइल जेकरा अध्यक्ष पंडित बलदेव उपाध्याय कइनी. ओकर प्रधानमंत्री डॉ परमेश्वरी लाल गुप्त बनावल गइल।
प्रो पपिया घोष के मानल रहे कि “भोजपुरी भाषा के सांविधानिक मान्यता के मांग के आन्दोलन शुरुए एगो गैर राजनीतिक आन्दोलन ही बनल रहे.”
आजो देखल जाव त भोजपुरी के मान्यता के आंदोलन एगो गैर राजनीतिक आंदोलन बा जेकर नतीजा में गृह मंत्रालय के 55 वां लंबित आश्वासन कमिटी के समीक्षा बैठक में जेकर अध्यक्षता डॉ रमेश पोखरियाल निशंक कइले रही 7 अप्रैल 2017 के बैठक में संसद में सरकार द्वारा साल 2003 से 2015 तक के भोजपुरी के मान्यता सम्बन्धी दिहल आश्वासन के खारिज कर दिहल गइल। बाकिर अभियो उमेद बा कि 2015 से 2020 सरकार के दिहल आश्वासन लंबित बा।6 जून 2019 के छपरा के सांसद आ पूर्व केंद्रीय मंत्री के सङ्गे गोरखपुर के सांसद रवि किशन के प्राइवेट मेंबर बिल कंसिडरिंग कमिटी भीरी लंबित बा। वइसे त भोजपुरी खातिर 19 गो प्राइवेट मेंबर बिल संसद में आइल बाकिर नतीजा सिफर रहल।
बाकिर भोजपुरिया लोग हार माने वाला मनई ना ह लोग। सरकार के कार्यकाल अभियो लंबा बचल बा उमेद कइल जा सकेला कि जवन भाषा देश के अलावा 30 देसन में मौजूद बा (सरकार के डाटा के अनुसार) जवन नेपाल में तीसरा बड़ा भासा बिया, मॉरीशस से यूएन में आपन उपस्थिति 'गीत गवाई' के माध्यम से दर्ज करा चुकल बिया ओकरो भारत सरकार उद्धार करी आ ओकरा संविधान के आंठवी अनुसूची में शामिल करी।
ना घोंटले घोटाता ना उगीलले उगीलात बा
भोजपुरी के ई कहावत बिहार सरकार के दारूबंदी कानून पर लागू हो रहल जईसन कि जनता कहत हम पियब आ सरकार कहत बिया हम पिए ना देब। एही रस्साकसी में कानून के रोज बंटाधार हो रहल बा। सरकार के ज़िद आपन आ जनता के आपन। जनता पिए ला बेचैन बिया अइसन जईसन भोजपुरी में कहल बा - लूर, लछन,बाई मरले प जाई। कहे के मतलब लोगन के लछन ईहे कि हमनी पियबे करब आ सरकार कहत बिया पिये ना देब।
मालूम होखे के चाहीं कि 5 अप्रैल, 2016 से बिहार प्रदेश में शराबबंदी कानून लागू बा। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समझ में ई एगो राजनीतिक ना बलुक एगो सामाजिक बदलाव के कानून ह। बकौल मुख्यमंत्री शराबबंदी कानून लागू भइला से घरेलू हिंसा, पारिवारिक विवाद, अपराध आ सड़क दुर्घटना में कमी आइल बा संगे संगे राज्य के लोगन के स्वास्थ्य में सुधार आइल बा।
बाकिर फेर से शराबबंदी कानून पर बहस शुरू बा कि नीतीश सरकार के शराबबंदी के कानून केतना कारगर बा आ केतना विफल। राज्य के विपक्षी पार्टी मुखर एह कानून के विरोध में त रहले रहे बाकिर अब सरकार के मुख्य घटक बीजेपी एह कानून के पक्ष में नइखे त दोसर घटक हम पार्टी बहुत बेर शराबबंदी कानून पर सवाल उठा चुकल बिया।
एकरा में एगो नया मोड़ तब आइल ह जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना पिछला एतवार के विजयवाड़ा के सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय में आयोजित एगो कार्यक्रम में कहलें कि बिहार में लागू शराबबंदी कानून अदूरदर्शिता के एगो नमूना बा काहे कि एह कानून के चलते लाखन लोगन पर मुकदमा दर्ज भइल बा जेकर दबाव न्यायपालिका पर देखे के मिल रहल बा। हालत ई बा कि पटना हाई कोर्ट में जमानत के अर्जी के भरमार हो गइल बा एकरा वजह से एगो साधारण जमानत अर्जी के निपटारा में साल साल भर के समय लाग जात बा।
मुख्य न्यायधीश के ई टिप्पणी ओह समय में आइल बा जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शराबबंदी के समर्थन में आपन समाज सुधार यात्रा पर राज्य भर के दौरा पर निकलल बाड़न। मुख्यमंत्री बेशक शराबबंदी कानून के सफलता के बात करत बाड़न बाकिर ईहो सच्चाई बा कि बिहार में जहरीला देसी शराब पी के मरे वाला के संख्या दिनोदिन बढ़ रहल बा आ शराब के अवैध धंधा करे वाला खूब चानी काट रहल बाड़े। राज्य में मादक द्रव्य के अलावा भांग आ गांजा के मांग बढ़ल बा।
शराबबंदी कानून में पलीता लगावे के काम केहू दोसर ना बलुक बिहार पुलिस कर रहल बीया। पद्म श्री सुधा वर्गीज के कहनाम बा कि सरकार के शराबबंदी के पुलिस हाइजैक कर लेले बिया। पुलिस एह कानून के आड़ में खूब उगाही कर रहल बिया।"
ईहो सच्चाई बा बिहार पुलिस शराब तस्करी के रोके में विफल रहल बिया काहे से बिहार से सटल राज्यन में उत्तर प्रदेश आ झारखंड बा आ एक ओर से नेपाल से जुड़ाव बा जहां से शराब के आवाजाही रोकल बड़का कठिन काम बा। शराब के अवैध धंधा में लागल लोग आजो पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आ दिल्ली से शराब के तस्करी कर रहल बा लोग जेकरा कारण बिहार में देसी विदेशी दारू के आपूर्ति में कमी नईखे बाकिर ऊ दुगुना दाम में मिल जात बा जवन शराबबंदी कानून के ठेंगा देखा रहल बा। गांव में महुआ मीठा से लेके स्प्रिट वाला शराब लुका छिपा में बिकाते बा आ पिछला महिना में गोपालगंज में भईल दर्जन भर के मौत ओकर गवाह बा।
देखल जाव त बिहार में शराबबंदी कानून सामाजिक बदलाव खातिर अभूतपूर्व कदम बा काहे कि महिला सभे के मांग पर मुख्यमंत्री एह कानून के अमलीजामा पहिरा देलन ई जानत कि सालाना चार हजार करोड़ से ऊपर के राजस्व के नुकसान राज्य सरकार के होई बाकिर राजनीति जिंदा इंसान खातिर होखेला। राज्य के लोग आकंठ शराब में डूब जाई त राज्य विनाश के कगार पर चल जाई। जवन बिहार के नाव बुद्ध बिहार के चलते बा उहे महात्मा बुद्ध के कहनाम रहे कि 'शराब से हरमेसा भयभीत रहे के चाहीं काहे कि ई पाप आ अनाचार के जननी कहल जाले।'
नीतीश कुमार के शराबबंदी कानून के विरोध में पक्ष विपक्ष के पार्टी जहां गोलबंद बा उहे सरकार समाज सुधार यात्रा से एगो ऑडिट कर रहल बिया कि कानून से केतना लोग खुश -नाखुश बा। बहरहाल सरकार के एह दिसाई एगो अध्ययन करावे के चाहीं। एगो मध्यम मार्ग निकाले के चाहीं फेर एह कानून पर पुर्नविचार करे के चाहीं। एह में कवनो दू मत नईखे कि मुख्यमंत्री के कदम बहुत क्रांतिकारी बा पर केतना प्रभावकारी बा एकर व्यावहारिक पक्ष के जानल जरूरी बा ना त अस्सी के दशक में जब जनता सरकार नशाबंदी कानून लागू कईलस त लोग कहल- 'नसबंदी में इंदिरा गईली आ नशाबंदी में देसाई जइहें।'
गारी आ गोली बाच गइल बा का बिहारियन के भाग्य में?
'गिरमिटिया' से 'बिदेसिया' 'भईया' 'मेड़ों', आ 'बिहारी' इ कुल नाम उ कामगार, मजदूर, भा श्रमिक लोगन दिहल बा जे बिहार से अलग अलग समय में श्रम प्रवजन भा प्रवसन करि विदेश भा देस के अलग अलग प्रांत में रोजी-रोटी खातिर मेहनत मजूरी करे गइलन भा जा रहल बाड़न भा जा के बस गइल बाड़न।
बिहार से पलायन आज के बात नईखे बाकिर तनिका पाछे चलीं इतिहास में। सन 1833 ई में ब्रिटेन में दास प्रथा के खात्मा के घोषणा भइल बाकिर ओकरा ठीक बाद 1834 ई में एगो नया तरीका के प्रथा ब्रिटिश सरकार खोज लिहलस।
एह नवकी प्रथा के नाम रहे -लेबर ऑन एग्रीमेंट। एह एग्रीमेंट के तहत बिहार के भोजपुरी भासी क्षेत्र से लाखन मजदूरन के मॉरीशस, फिजी गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद एंड टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका, नाटाल जईसन ब्रिटिश उपनिवेश वाला देसन में ले महिनवन के लमहर समुंद्री जहाज से पहुंचावल गइलन। ईहे लोग गिरमिटिया मजूर भा गिरमिट काटरंकी कहल गईलें ई लोग आपस में एक दोसरा के जहाजी भाई बहन कहें। एगो बात बतावल जरूरी बा कि इ जहाजी भाई बहिन समुद्र के लमहर महिनवन के जहाजी यात्रा में आपन जाति के समुद्र में हमेशा खातिर विसर्जित कर देलन आ खालिस गिरमिटिया बन के ओह देसन में गइल लो बाकिर मेहनत, पसेना आ बुद्धि ज्ञान से
आज ऊ देसन के शासक भा सत्ता के शीर्ष पर विराजमान बाड़न। बिहारी के ईहे लगन केतना लोगन के आंखिन में गड़ेला।
अपने देस के अलग-अलग प्रांत में बिहारी लोग कामगार से ले प्रशासक बन के जालन। भारत के हरेक महानगर भा औद्योगिक नगर भा राज्य राजधानी में बिहारी लोग आपन श्रम ओह प्रांत के विकास की गति दे रहल बाड़न।
हरेक इंसान के बेवहार में ई शुमार बा कि आपन नीक आ खुशहाल जिनगी खातिर, सुख सुविधा खातिर पलायन करत रहेला । कबो अभाव के चलते मतलब जीवकोपार्जन खातिर त कबो जिनगी में सभ सुविधा खातिर। अभाव के श्रेणी में फरक बा।
खाली आर्थिक अभाव के चलते खाली बिहारी लो पलायन करेलें त गुजरातो से पलायन काहे होखेला? काहे पंजाब से पलायन होखेला जबकि ई दुनू राज्य बहुत धनी-मनी बा।
इह सवाल के जवाब ई बा कि बिहार के भोजपुरी क्षेत्र में सबसे ज्यादा संख्या मजदूर लोगन के बा काहे कि आजादी के पहले अगर कहीं सबसे ज्यादा बंधुआ मजदूर रहे त बिहार के भोजपुरी क्षेत्र ह एकर नतीजा ई भइल कि ओह क्षेत्र से श्रम प्रवसन तेजी से भरल। एही प्रवसन के भोजपुरी में ठेलुआ प्रवसन या पुश माइग्रेशन कह सकीलें। ठेलुआ प्रवसन के कारण में बाढ़, सूखा, बेरोजगारी आकाल, महामारी सामाजिक समस्या, गरीबी आ विपरीत परिस्थिति रहल बा। ठेलुआ प्रवसन में जाए वाला लोगन के लोक नाटककार भिखारी ठाकुर बिदेसिया' कहत रहनी जबकि एगो प्रवसन के रुप बा जेकरा घिंचवा प्रवसन भा पुश माइग्रेशन जाला जवन स्वेच्छा से होखेला जवन बेहतर जीवन स्तर, शिक्षा, नौकरी, लमहर व्यवसाय खातिर होखेला एही प्रवसन के अंतर्गत गुजरात आ पंजाब के प्रवसन देखल जा सकेला काहे कि गुरजाती भा पंजाबी लोग आपन राज्य से निकल के कनाडा, यूके, यूएसए,ऑस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड भा कीनिया जालन।
अब सवाल बा कि बिहारीयन के भाग्य में गोलियां गाली काहे बा ? इकरा पर गंभीरता से सोचे कि जरूरत बा। बिहार के प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत आय की तुलना में बहुत कम बा। बिहार में आज तकरीबन 80% से ऊपर लोगन के लगे जमीन नईखे । ऊ आजो भूमिहीन बा।लगभग 40 लाख लोगन के लगे घर ले नइखे आ नौकरी भा रोजगार प्रदान करे वाला इंडेक्स में देखल जाए त बिहार भारत के अन्य राज्यन के तुलना में बहुत नीचे बा ओकर मुख्य कारण का बा ? मलतब जवन तरह ऊंहा औद्योगिकीकरण होखे के चाही उ ना हो सकल। जे तरह से सामाजिक विषमता खतम होखे के चाही ऊ ना हो सकल। उहां जमीन के बंटवारा ईमानदारी से लोगन के बीच में सरकार करे में विफल रहल, राजनीतिक कदम सार्थक ना उठल परिणामस्वरूप बिहार से पलायन लगातार जारी रहल। भारत के अन्य प्रांतन में बिहार के लोगन के साथ आज भी दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में व्यवहार देखल जा सकेला।
बिहारी शब्द एक गाली के पर्याय बन गईल बा आ बिहारी मजदूरन प्र दोसर प्रांत के लोगन द्वारा बहुत आसानी से जुबानी, शारीरिक आ मानसिक हमला होखत रहेला।
कहावत बा कि जब्बर क सामने का मोल अब्बर के तबे त असम में उल्फा महाराष्ट्र में शिवसेना, राज ठाकरे ओकर समर्थक बिहारी के टारगेट करेला, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब में बिहारी पर जानलेवा हमला, टीका टिप्पणी, मारपीट जईसन घटना आम बा। दक्षिण राज्यन में कर्नाटक होखे उहों बिहारियन के साथ भेदभाव देखे के मिलेला। पूर्वोत्तर के राज्यन में बिहारी नॉन ट्राइबल के नाम पर सतावल जालन। पश्चिम बंगाल भा झारखंड में भी बिहारियन के प्रति घृणा आ नफरत के भाव साफ साफ देखाई देला।
ताजा मामला कश्मीर के बा जहवाँ बिहारी कामगार भा मजदूरन के हत्या भइल बा। बेगुनाह बिहारियन के हत्या से आतंकवादी लोग आजाद कश्मीर मिल जाई का?
बिहारी लोगन के भइल ई हत्या पर गंभीरता पर सोचें के समय बा।
का हमनी का संविधान भारत में एक प्रांत से दूसर प्रांत में काम करे गईल खातिर इजाजत ना देला? संविधान के तहत बिहारी कामगार मजदूर एक राज्य से दुसर राज्य काम करें जालान एही से ऊ राज्य सरकार के चाही कि बिहार के श्रमिक लोगन के जीवन के सुरक्षा के गारंटी दे। राज्य सरकार के सुनिश्चित करे के चाही कि फेर से एक तरह के घटना भविष्य में ना होखे।
बाकीर सबसे जरूरी बा कि बिहार राज्य सरकार एह दिशा में ई दिशा में कदम उठाए पलायन के कैसे रोक जाव। जब ले कवनो प्रभावी ठोस कदम ना उठी तब ले बिहारियन के भाग्य में गारी आ गोली हमेशा बरकरार रही।
आपन बिहार ने राजपथ पर झांकी ना देखला के टीस।
26 जनवरी जेकरा हमनी गणतंत्र दिवस के रूप में बहुत सरधा से मनावेनी जा ओह के दिने दिल्ली के राजपथ पर आयोजित होेखे वाला परेड आ झांकी के आखिन देखल कमेंट्री जब जसदेव सिंह जी के आवाज में हमनी के रेडियो पर लइकाई में सुनी जा तब ओकरा में भारत के अलग अलग राज्य के झांकियन के जीवंत तस्वीर मन में उभरे त फेर मन करे जसदेव सिंह जी के सुनते रहीं। मन रोमांचित हो जात रहे।
गवे गवे टीवी आइल। हमनी के 1985 से ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन सेट पर दूरदर्शन पर 26 जनवरी के राजपथ के झांकी आ परेड देखे के मौका मिलल। झांकी के क्रेज अइसन रहे कि नहा धोआ के स्कूल में झंडा फहवारला के ठीक बाद सवेरे, नाश्ता पानी करके टीवी के सोझा बईठ जात रही सन आ इंतजार करी जा झांकी के टीवी पर आवे के। टीबी में देखत खा जसदेव सिंह जी के कमेंट्री बंद ना होत रहे । अब झांकी देखि देखि ऊंहा के आंखिन् देखल हाल सुने के आनंद दुगुना हो जात रहे।
सभे जानत बा कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के राजपथ पर निकले वाला झांकी में अलग अलग राज्यन के ऐतिहासिक महत्व के स्थान, व्यक्ति, आजादी से जुड़ल कवनो घटना, ओह राज्य के लोक नृत्य, लोकगीत आ जल, थल आ वायु सेना ट्रेंड सैनिक लोगन के परेड देखि देखि देस के अनेकता में एकता के सूत्र वाला पढ़ावल बततावल पाठ साकार हो जाए। मन में देश के शौर्य देखि के देश भक्ति के जज्बा हिलकोरा मारे लागे। सेना के पराक्रम, परेड में वीर जवानन के देखी करेजा में ऊंहा लोगन खातिर सरधा के भाव उठेला।
हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर, फाइटर विमान सामरिक महत्व के चीज के प्रदर्शन से देश के प्रगति के बरियार तस्वीर मन में बन जाला।
जइसन की हमनी के देस के आजादी के 75 साल चल रहल बा जेकरा खुशी में देस में 'अमृत महोत्सव' मनावल जा रहल बा, लिहाजा एही प्रसंग पर आधारित एह साल कुछ राज्यन के झांकी गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के राजपथ पर देखे के मिलल बाकी अपना राज्य बिहार के झांकी के अनुपस्थिति से मन छोट हो गईल।
हमनी दू दसक से देश के राजधानी दिल्ली में रह रहल बानी। दिल्ली एगो छोटहन भारत के तस्वीर देखावे ला । आजू आपन बचवन संगे गणतंत्र दिवस की परेड आ झांकी देखे टीवी के सोझा बईठल रहीं त आपन बिहार राज्य के झांकी देखे की ललक बढ़ गईल बाकिर एहू साल निरासे मिलल। इ निरासा के सिलसिला पिछला छव साल से लागल बा मतलब पिछला छव साल से गणतंत्र दिवस के परेड बिहार के झांकी नदारद बा बाकिर एह बरिस बारह राज्यन के झांकी आ नौ मंत्रालय के झांकी देखे के मिलल सब बहुत नीक लागल।
हमनी क देस भारत विविधता के देश ह। गणतंत्र दिवस के अवसर पर निकले वाला झांकी के वैश्विक महत्व बा। एकरा दुनिया के भर में देखल जाला आ एकर चर्चा होखेला।
एही से दिल्ली के राजपथ पर भारत के उनत्तिसो राज्य सहित सातो केंद्र शासित प्रदेशन के झांकी होखे के चाही ताकि ऊहां के कला, संस्कृति, लोकगीत,लोकनृत्य आ राज्य के ऐतिहासिक महत्व के घटना आ स्थल के, स्वतंत्रता सेनानियों के संग संग तत्कालिक सरकार के राज्य के उपलब्धि के जानकारी रहे के चाहत रहे जवना से नया पीढ़ी के देश के खल - बेखल के रंग रूप, वेशभूषा, खानपान,भासा, लोकगीत, संगीत आ नृत्य के जानकारी मिल जाव। ओकरा देखेला पर भारत के निवासियन के मन में एकजुटता के परिचय मिली।
जइसन कि हमनी के जानत बानी कि ई साल अमृत महोत्सव के कारण रक्षा मंत्रालय भारत @ 75 विषय पर झांकी के प्रसंग रखले रहल एही से हर राज्य से स्वतंत्रता सेनानी, उनका से, जुड़ल इतिहास के पहलू के प्रदर्शन होखल चाहत रहे जवन महत्वपूर्ण होखित।
हम अपने बचवा लोग संगे छव साल से बिहार के झांकी देखे ला टीवी पर अगोरन करत बानी बाकिर ओकर राजपथ पर अनुपस्थिति मन में कचोट उठा देला काहे कि इ अपना राज्य के झांकी हमनी के भावना से जुड़ल बा।
जातीय जनगणना काहे जरूरी बा?
जातीय जनगणना के मांग एगो अइसन समय पर भइल बा जवन पिछड़ी जातीयन के राजनीति करे वाला नेतागण खातिर बहुत माकूल समय बा। सोशल साइंटिस्ट लोग के दुविधा समझ में आवत बा बाकिर नीतीश कुमार के पार्टी जदयू आ लालू प्रसाद के पार्टी राजद के एह पक्ष में एक साथ आइल बीजेपी के कपार पर पसेना ले आइल बा।
राम मंदिर के निर्माण के संगे कमंडल के मुद्दा शांत पड़ गईल आ मंडल के जिन्न फेर से बोतल से बहरी आ गईल बा बाकिर इहो एगो सच्चाई बा कि 2018 में भाजपा सरकार 2021 में होखे वाला जनगणना जातीय जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतरा में आवे वाली कुल जातियन के गिनती करावे के पक्ष में रहल बीया।
मालूम होखे के चाही कि मंडल आयोग के संस्तुति में अन्य पिछड़ा वर्ग के संख्या 3743 उल्लेखित बा। बाकिर पिछड़ी जाति के जातीय जनगणना पर सरकार ठोस निर्णय खातिर दुविधा में बिया। ओकर दुविधा जाइजो बा काहे कि भाजपा के संगे ओकर कोर वोटर ओबीसी बा आ जदी ई मांग ओबीसी हलका से उठल बा त सरकार के दुविधा के समझल जा सकेला आ नीतीश कुमार के ई चाल के काट भाजपा के निकाले के पड़ी काहे कि नीतीश कुमार एनडीए के हिस्सा बाड़न।
भाजपा ऊ गलती ना करी जवन कांग्रेस 2011 के जातीय जनगणना कराके के ओकर रिपोर्ट दबा देलस।
इयाद कईल जरूरी बा कि यूपीए के हिस्सा रहल तमिलनाडू के एगो पार्टी पीएमके के नेता डॉ एस रामदोस जे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनल रहलन ऊं 2009 में बड़ी मुखरता से जातीय जनगणना के मांग कईले रहलन उनकर कहल रहे कि जातीय जनगणना से पिछड़ी जाति के आरक्षण के तय करे के आधार मिली।
तब जदयू के नेता अली अनवर कहले रहलन कि जब ले जातीय जनगणना ना होई तब ले तुलनात्मक रूप से ई पता ना चली कि कवन जाति के केतना लोगन के सामाजिक, आर्थिक आ राजनीतिक स्थिति का बा?
कहे के ना होई कि आजादी से पहिले 1931 में जाति जनगणना भइल रहे ओकरा बाद 1941 में विश्व युद्ध के कारण जाति जनगणना ना हो सकल ओकरा बाद फेर कबो जातीय जनगणना ना हो सकल। अब जब सरकार से मांग हो रहल बा त कहल जा रहल बा कि ई खाली राजनीति करे ला होखत बा बाकिर लोकतांत्रिक देश में राजनीति ना होई त फेर कहां होई?
हमनी के जनगणना में जाति के कॉलम पहिले से मौजूद बा। अनुसूचित जाति आ जनजाति के जनगणना हरेक साल होखेला आ ओकरा सरकार उजागर करे ले एकरा से केहू के डर कबो ना भइल बाकिर ओबीसी के जनगणना से अगड़ा जातीयन के भीतरी कवन बात के डर देखावल जा रहल बा? एकर अर्थ बा, सरकार के आजु अनिच्छा तकनीकी भा प्रशासनिक कठिनाइयन पर आधारित नइखे, ई ठेठ राजनीतिक बा।
जाति जनगणना के पीछे सोच बेशक राजनीतिक होखे बाकिर ओबीसी के भीतर हजारन जातियन के संख्या केतना बा ऊ सोझा आई आ ओकर अनुपात में उनके योजना के वितरण में केतना लाभ मिल रहल बा इहो सामने आई। ओबीसी के भीतरी कवन कवन जाति दबंग बाड़ी सन ? बचल ओबीसी जातियन के का स्थिति बा? सरकारी नौकरी में केतना प्रतिनिधत्व बा भा राजनीतिक भागीदारी का बा? इ कुल डाटा सामने आई। कहे के मतलब कि अन्य पिछड़ी जाति के कवन कवन जाति जादे लाभान्वित बा आ कवन उपेक्षित बा ई बात सामने आइला पर सरकार योजना बनावत समय धेयान राखी कि योजना के लाभ वंचित वर्ग के अंतिम आदमी तक जा रहल बा कि ना?
बहरहाल ई त तय बा कि जाति भारतीय समाज के सच्चाई ह। जे लोग एकर विरोध करत बा ऊ कवनो ठोस वजह देवे में असफल बा।
जातीय जनगणना से लोकतंत्र में जातीय ध्रुवीकरण होखी एकरा से केहू इनकर ना कर सके बावजूद एकरा जातीय जनगणना समान अवसर आ उचित प्रतिनिधित्व खातिर एगो कारगर कदम होखी।
भारत सरकार के नई शिक्षा नीति, 2020 के घोषणा में अनुशंसा भइल बा कि अब पांचवी वर्ग तक के छात्रन के आपन मातृभाषा, स्थानीय भाषा आ राष्ट्रभाषा में पढ़ावल जाई बाकी विषय चाहे ऊ अंग्रेजीये काहे ना होके ओकरा एगो सब्जेक्ट के तौर पर पढ़ावल जाई।
ई घोषणा के आलोक में बिहार सरकार के ओर से ऐलान भइल कि राष्ट्र नीति के आलोक में साल 2026 तक पहली से बारहवीं के किताब बदल जाई । एकरा खातिर शिक्षा विभाग के विशेषज्ञ लो पाठ्यक्रम बदले के तैयारी शुरू कर देलेे बाड़न। पाठ्यक्रम बनला के बाद पांचवी कक्षा तक मगही भोजपुरी, अंगिका में पढ़ाई होखी।
नया पाठ्यक्रम आ नया किताबन से सवा दो करोड़ से ज्यादा विद्यार्थियन के लाभ मिली।
सनद रहे कि बिहार में जहां यूजी से पीजी ले आ आगे पीएचडी ले भोजपुरी के पढ़ाई आ शोध होखेला जेकरा में बी आर ए बिहार विवि, मुजफ्फरपुर, कुंवर सिंह विवि आरा, जय प्रकाश नारायण वि वि छपरा आ नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी, पटना प्रमुख बा। उत्तर प्रदेश में शांति मिश्रा पुनर्वास विवि, लखनऊ आ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय प्रमुख बा बाकिर दीनदयाल उपाध्याय वि वि गोरखपुर आ पूर्वांचल विवि जौनपुर में हिंदी पीजी में एक पत्र भोजपुरी के पढ़ाई होखेला।
साल 2008 में इग्नू में भोजपुरी भाषा केंद्र खुलल बा लेकिन केंद्र के निष्क्रिय राखल बा ओकर कारण विश्वविद्यालय प्रशासन बता सकेला बाकिर बीए स्तर तक के पढ़ाई में भोजपुरी एगो भाषा के तौर पर फाउंडेशन कोर्स के रूप में शामिल बा।
बाकिर हाल में जेएनयू के नव नियुक्त कुलपति प्रो. शांतिश्री धुलिपुडी पंडित के घोषणा भोजपुरी भाषा के बढ़त कदम के सूचक बा। प्रो. शांतिश्री धुलिपुडी पंडित के कहनाम बा कि स्कूल आफ इंडियन लैंग्वेज में भोजपुरी भाषा के पाठ्यक्रम भारतीय भाषा के रूप भी तैयार कईल जाई। भोजपुरी के विकास खातिर एगो बढ़िया कदम बा।
जवन एकर अंतरराष्ट्रीय महत्व के रेखांकित कर रहल बा।
विदित होेखे कि मॉरीशस के एमजी इंस्टीट्यूट में भोजपुरी भाषा केंद्र बा जेकरा कारण अमेरिका, चीन आ जापान जईसन देश के विश्व विद्यालय में भोजपुरी पर रिसर्च काम भइल बा संगे संगे मंदारिन आ जापानी भाषा में भोजपुरी साहित्य के अनुवाद संभव भइल बा। महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट में कार्यरत प्रो अरविंद बिसेसर एकरा पर बहुत बढ़िया जानकारी देलन। मॉरीशस में प्राथमिक स्तर से पढ़ाई के पाठ्यक्रम भोजपुरी स्पीकिंग यूनियन कर रहल बा।
ओसही नेपाल प्रज्ञा संस्थान नेपाल में प्राथमिक स्तर से बारहवीं के पाठ्यक्रम तैयार कर ले ले बा । काठमांडू स्थित त्रिभुवन विश्व विद्यालय में भोजपुरी पर शोध काम भइल बा आ चल रहल बा।
हमनी जानत बानी जा कि जेएनयू में अनेक देशी विदेशी भाषा के केंद्र बा आ देसी विदेशी विद्यार्थी इंहा पढ़ाई कर रहल बा त ई तय बा कि भोजपुरी भाषा साहित्य आ संस्कृति के ग्लोबल महत्व बढ़ी।
भोजपुरी के प्राथमिक स्तर से लेके बारहवीं तक के पढ़ाई से एगो फायदा ई हाेखी कि भोजपुरी में यूजी, पी जी पढ़ाई करे आ पीएचडी में शोध करे वाला विद्यार्थी लोगन के संख्या बढ़ी। एकर दूरगामी नतीजा होई। जईसे भोजपुरी शिक्षा क्षेत्र में रोजगार के अवसर मिली। प्राथमिक, माध्यमिक और विश्व विद्यालय स्तर पर शिक्षक आ प्राध्यापक के बहाली होई।
ईहां एगो जानकारी दिहल जरूरी बा कि स्पायर लैब, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस, बैंगलुरु और सीएसटीएस, दिल्ली द्वारा भोजपुरी भाषा के डिजिटलीकरण करे के संबंधी एगो परियोजना संचालित हो रहल बा जेकरा खातिर भोजपुरी क्षेत्र के भोजपुरी में परांगत युवा के खोज हो रहल बा जे एह परियोजना के हिस्सा बन सके। बिहार सरकार के विश्वविद्यालय चयन आयोग द्वारा भोजपुरी के दो सहायक प्राध्यापक पद के इंटरव्यू भइल। एही तरह भोजपुरी भाषा के संवैधानिक मांग पूरा करे का रास्ता सहज हो सकी।
एकरा से साफ बा कि नई शिक्षा नीति 2020 से अन्य दोसर मातृ भाषा के संगे संगे भोजपुरी भाषा, साहित्य आ संस्कृति के विकास होखी आ भारत के विविधतापूर्ण संस्कृति के मजबूती प्रदान करी। अंत में ई दर्ज कईल जरूरी बा कि जेएनयू में भोजपुरी पाठ्यक्रम तैयार भइला से भोजपुरी के पढ़ाई के प्रति लोगन के रुचि में विकास होई।
किसी व्यक्ति अथवा समाज की सम्पन्नता का पैमाना सामान्यतः उसके भौतिक संसाधनों तथा अर्थ से लगाया जाता है, और कभी कभी यह उसके सम्मान का धोत्तक भी बन जाता है | जहा तक भाषा का सवाल है तो भाषा की समृद्धता उसके शब्दकोष के खजाने पर निर्भर करती है , और इस मामले में हमारी भोजपुरी भाषा कोई शानी नहीं है | समकक्ष किसी अन्य भाषा में उतने पर्यावाची शब्द नहीं मिलेंगे जितना की भोजपुरी में | उदहारण के लिए हिंदी में डंडा और अँग्रेजी में स्टिक है तो, भोजपुरी में लाठी, लउर, गोजी, सोंटा, छड़ी, बकुली, डटली, पैना जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग आवश्यकतानुसार होता है | जहाँ तक भोजपुरी भाषा व्यापकता का सवाल है तो भोजपुरी के अलावा शायद ही कोई समकक्ष क्षेत्रिय भाषा है जो इसके समान व्यापक बना हो | इस भाषा की अन्य विशेषताओं के क्रम में इसमें व्याप्त अद्वितीय माधुर्य को हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते | यह अपने आप में सरसता का प्रतिबिम्ब है | इस भाषा में हमारे विभिन्न मानवीय भावों जैसे प्यार, स्नेह, दुलार, सम्मान, आक्रोश इत्यादि को प्रकट करने के लिए प्रयोग में आने वाले शब्दों के अलग-अलग भाव अन्तर्मन को छू लेते है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता | भोजपुरी की विशालता का एक उदहारण यह भी है की विभिन्न क्षेत्रिय भाषाओं अथवा हिंदी अंग्रेजी के प्रयोग में आने वाले शब्दों को थोड़ा बहुत परिवर्तन कर अपने में ऐसा आत्मसात करती है जैसे वो उसका अपना हो | उदहारण के लिए नजदीक शब्द को अंग्रेजी में नियर है तो हम भोजपुरी में निअरे कहते है | इसकी समृद्धि, व्यापकता, सरसता एवं अन्य महत्वपूर्ण गुणो के बावजूद इसे जो सम्मान अपेक्षित है वो आज तक प्राप्त नहीं हो पाया है | काश समर्थवान, राजनीतिज्ञों, और उच्चासन पर विराजमान लोगों को इसका भान होता और इसे भी वो सम्मान प्राप्त होता जिसकी यह हकदार है तो हमारे जैसे लोगों को संतुष्टि तो होती ही साथ ही विश्व के दर्शन भर देशो में रहने वाले भोजपुरी प्रेमी लोगो को भी आत्मसंतुष्टि होती |
डॉ गजाधर मिश्र