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भारतीय साहित्य में वर्णित मध्य एशिया की भूमि और लोग .

Author: डाॅ. राजेश कुमार ‘माँझी’ हिंदी अधिकारी एवं संपादक-जामिया दर्पण जामिया मिल्लिया इस्लामिया (केन्द्रीय2024-02-19 17:00:00

प्राचीन भारतीय शास्त्रीय साहित्य का अवलोकन करने पर हम देखते हैं कि उसमें मध्य एशिया की भूमि और लोगों के संदर्भ दिए गए हैं जिसका वर्णन बी.बी. कुमार ने अपनी पुस्तक इंडिया एंड सेंट्रल एशियाः ए शेयर्ड पास्ट में विस्तापूर्वक किया है । वेदों, पुराणों, महाकाव्यों और मनुस्मृति के अलावा, हमें कालीदास के रघुवंश, कल्हण की राजतरंगिनी और क्षेमेन्द्र की बृहत कथा मंजिरी, सोमदेव के कथा सरित सागर, राजशेखर के काव्य मिमांसा और विशाख दत्त के मुद्राराक्षस में उनका उल्लेख मिलता है।

वैदिक साहित्य में मध्य एशिया

भारतीय शास्त्रीय साहित्य मध्य एशिया को उडिच्य या उत्तरपाथा (उत्तरी क्षेत्र) के अंतर्गत वर्गीकृत करता है। सामवेद के वामसा ब्राह्मण में औपमान्यवा के शिक्षक मद्राकर शौगंयानी का उल्लेख है।1 ये नाम का संकेत करते हैं वे कंबोज (हिन्दुुकुश और पामिर) और उसके करीबी पड़ोसी मद्रा से संबंधित थे। इसी प्रकार, उत्तर मद्रास और कम्बोज निकट पड़ोसी थे।2 फिर भी वहाँ परम कम्बोज, उत्तर मद्रा और उत्तर कुरु, जैसे क्षेत्र हैं, जो निश्चित रूप से मध्य एशिया के हिमालय में स्थित थे। जैसा कि ऐत्रेय ब्राह्रान मंे उल्लिखित है कि बहरीका उत्तर मद्रास, स्पष्ट रूप से बैक्ट्रिया (बाल्खह, बहलिका) में बसे मद्रास को दर्शाता है। ऐत्रे ब्राह्मण, उत्तर कुरु और उत्तरा मद्रा के बारे में भी बताता है।3 अथर्व वेद एक स्थान पर कई मध्य एशियाई संस्कृतियों के नामों को एक साथ वर्णन करता है। वे उत्तरपथ के शक, यवन और तुसार, और बहलिकेश (शक, यवन तूसार, बहलीकश) हैं। उनकी संगतता, अन्य नस्लों के संबंध में उन्हें अन्य जगहों की पड़ोसी जनजातियाँ दर्शाता है। यह उत्तर-पश्चिम में गांधारी, मुजावत और बहलिक के संदर्भ भी दर्शाता है। ये क्रमशः गंधार, मुज़ावत (सोम की भूमि, कंबोज क्षेत्र या हिंदुकुश-पामीर क्षेत्र) और बैक्ट्रिया हैं। अथर्व वेद पेरिसस्ता, ‘‘कम्बोज, बहलिकेश और गंधार को एक स्थान पर दर्शाता है। यह प्रत्यक्ष रूप से पहली बार कम्बोज का संदर्भ प्रस्तुत करता है।”5  

भारत और मध्य एशिया के बीच का संपर्क हमें अतीत की ओर ले जाता है। उत्तर कुरू के निवासियांे के बारे में ऐसा प्रतीत होता है कि वे महाकाव्यों के पात्र थे और जिन्हें बाद में साहित्य का भी पात्र बनाया गया लेकिन वैदिक इंडेक्स के लेखक द्वारा एत्रीय ब्राह्मण ने इन्हें ऐतिहासिक बताया गया। उत्तर कुरू वशिष्ठ सत्य हव्या के लिए एक दैव्य भूमि (देवों अर्थात् भगवान का क्षेत्र) था परंतु एत्यार्ती इस पर विजय प्राप्त करना चाहता था।6 भारतीय अपने प्रत्येक दिन की प्रार्थना अर्थात् संकल्प के जम्बू द्वीप को याद करते हैं जिसमें मध्य एशिया शामिल था।7

पुराणों/भुवनकोष तथा महाकाव्यों में मध्य एशिया की भौगोलिकता 

प्रत्येक पुराण के अभिन्न हिस्से के रूप में ज्ञात संसार की भौगोलिकता और इतिहास विद्यमान होता है जिसे भुवनकोष के रूप में जाना जाता है। पुराणों के मुताबिक पृथ्वी सात द्वीप समूहों से बनी है। प्रारंभ मंे द्वीप का अर्थ पानी के बीच के उभरे हुए स्थल को माना जाता था। पानी ने इसे इस प्रकार वर्णित किया है-द्वि$अप अर्थात् ”पानी के दो हिस्सों के बीच की उठी हुई भूमि”।8 परंतु पौराणिक द्वीप का तात्पर्य महाद्वीपों से अथवा जनजातियों से अथवा राष्ट्रीय क्षेत्रों से है।9 यह ”सभी प्रकार के प्राकृतिक और मानव क्षेत्रों-बड़े अथवा छोटे को इंगित करता है।”10 इसके प्रहरी जल, बालू, दलदल, ऊँचे पहाड़ और घने जंगल हो सकते हैं।11 जम्बू द्वीप संसार के सभी सात द्वीपों के केंद्र में अवस्थित है। जम्बू द्वीप के केंद्र में माउंट मेरू अवस्थित है। पुराणों की भौगोलिकता के आधार पर यहाँ यह कहना या बताना जरूरी है कि ”माउंट मेरू पामीर की गांठ है; भारत और मध्य एशिया इसके भाग हैं। यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि कुछ विद्वानों ने पुराणों में वर्णित द्वीपों का अध्ययन विशिष्ठ भौगोलिकता जिसमें पर्वत, नदियाँ, खेती/मौसम आदि के आधार पर करने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए अलबरुनी ने पुष्कर द्वीप की अवस्थिति चीन और मंगला (शायद, चीन और मंगोलिया) के बीच बताई है।12  

 

जंबू द्वीप, जिसे सुदर्शन्दविपा के नाम से भी जाना जाता है, उसका आकार गोल बताया जाता है और सभी ओर से यह समुद्र से घिरा हुआ है।13 इसकी छह पर्वत श्रृंखलाएं हैं - हिमालय, हेमकुट, निसाध, नील, स्वेत और श्रृंग्वत हैं14 और नौ क्षेत्र (वर्षा) - हरि, भद्रस्वा, केतुमल, भारत, उत्तर कुरु, स्वेत, हिरण्यक, एरावत और इलाव्रत हैं15 जंबुद्वीप दक्षिण और उत्तर में दबा हुआ है तथा यह मध्य में ऊँचा और उठा हुआ है।16 ऊँचे क्षेत्र को इलाव्रत या मेरुवरसा के रूप में जाना जाता है; माउंट मेरु मध्य में स्थित है।

पुराण के अनुसार, जंबू द्वीप के नौ प्रभाग हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार नौ प्रभाग हैंः इलाव्रत, रामयका अथवा रामनका, हिरणमया या हिरण्यक, उत्तर कुरु या श्रृंगसाक, भद्रस्वा, केतुमल, हरि, किमपुरसुर और भारत।17 पहला प्रभाग इलाव्रत केन्द्र में स्थित है। अगले तीन और अंतिम तीन क्रमशः उत्तर और दक्षिण में स्थित हैं। शेष दो, भद्रस्वा और केतुमल क्रमशः पूर्व और पश्चिम में स्थित हैं। क्षेत्रों का भौगोलिक विस्तार महाभारत में, भीष्म पुराण में और अन्य पुराणों में दिया गया है जैसे किः मार्केण्डेय पुराण18 तथा ब्रह्माण्ड पुराण19 और ये जम्बू द्वीप को चार क्षेत्रों में उस प्रकार विभाजित करते हैं जैसे कि कमल की चार पंखुड़ियाँ होती हैं। माउंट मेरू से चार नदियों का प्रवाह होता है, अर्थात् सीता नदी पहाड़ों से निकलकर भद्रस्वा क्षेत्र से होते हुए समुद्र तक पहुँचती है; अलकनंदा भारत के दक्षिण से होते हुए समुद्र तक पहुँचती है;  चकसूू (अथवा वक्सू अथवा ओक्सस) पहाड़ों से निकलकर पश्चिम की ओर केतुमल क्षेत्र तक जाती है तथा भद्र दक्षिणी पहाड़ों और उत्तर कुरु से होते हुए समुद्र तक पहुँचती है।20

 

वायु पुराण जंबू द्वीप के भूगोल अर्थात् पर्वत श्रृंखलाओं, घाटियों, नदियों आदि का विवरण प्रस्तुत करता है जिससे आज के कुछ भौगोलिक विशेषताओं की पहचान करना संभव है। एस.एम. अली के अनुसार, उत्तरी इलाके का विवरण में ‘यूराल और कैस्पियन से लेकर यनेसी तक और आर्कटिक के तुर्किस्तान से, टियान शान श्रंखला तक का बहुत विशाल क्षेत्र शामिल है। यह पूरे क्षेत्र की स्थलाकृति का वर्णन करता है और कुछ मामलों में बहुत सटीक व सुंदर स्थलाकृति का चित्र प्रस्तुत करता है .....‘21 पूर्व में भद्रस्वा, तारिम बेसिन और ह्वांगो नदी क्षेत्र है, यानी पूरा सिन्कियांग और उत्तरी चीन इसमें समाहित है22 केतुमल जो मेरु के पश्चिम में है जिससे चाक्सु नदी (ओक्सस नदी) प्रवाहित होती है वह पश्चिमी तुर्कस्तान से मेल खाता है।23 यह माना जाता है कि इसमें ‘व्यावहारिक रूप से समूचा प्राचीन बैक्ट्रिया जिसमें पूरा का पूरा अफगान तुर्किस्तान (हिंदुकुश का उत्तरी भाग) शामिल है तथा हरिरुड घाटी जो मुरख़ाब प्रणाली का बेसिन है (अमू दरिया के प्राचीन आधार के सभी हिस्सों में) और सुरख़ान, कफिरिनिगन, वाख्श और युकसू नदियों की घाटियाँ शामिल है... ‘24 हरि25 और भारत क्रमशः पश्चिमी तिब्बत और हिंदुस्तान का प्रतिबिंबित करते हैं। मेरु के आसपास का क्षेत्र अर्थात् पहाड़ी क्षेत्र, मेरुवर्षा अथवा इलाव्रत था। हिमालय और हिंदुकुश में पामीर से आर्कटिक तक का क्षेत्र उत्तर कुरु के रूप में जाना जाता था। आर्कटिक को सोमगिरी के रूप में जाना जाता था।26

महाकाव्यांे में मध्य एशिया

दो महाकाव्यों, वाल्मिकी के रामायण और महाभारत में अनेक बार उत्तर कुरू और सोमगिरी का उल्लेख हुआ है। वाल्मिकी के रामायण मेें इस क्षेत्र का ग्राफिक्स चित्र आया है।27 सीता की खोज हेत1ु बंदरों को उत्तर दिशा में भेजते समय सुग्रीव भूमि मार्ग और बीच में आने वाले देशों के बारे में बताते हैं। अन्य बातों के साथ-साथ वे उन्हें निर्देश देते हैं कि वे लोग सीता की खोज दर्दा, कम्बोज, यवन और शक भू-प्रदेश और शहरों में भी करें।28 वे उत्तर कुरू और सोमतिगरी (आर्कटिक प्रदेश) का वर्णन इस प्रकार करते हैंः- ”वहाँ रास्ते में समुद्र है और सोमगिरी सबसे उत्तर में अवस्थित है रास्ता अत्यंत दुर्गम है। उस प्रदेश में सूर्य की पहुँच नहीं है और वहाँ रोशनी की कमी है वहाँ कोई राष्ट्रीय सीमा नहीं है।29 जैसा कि महाभारत मंें वर्णन है कि अर्जुन उत्तरी समुद्र से युधिष्ठिर के अभिषेक के लिए जल लेकर आते हैं।30 उसके  चारों ओर मेरू (पामीर), मेरूवर्षा होने का वर्णन है और साथ ही यह भी उल्लेख है कि उसके पूर्व में भद्राश्वा और उत्तर में उत्तर कुरू है।31 समुद्र मंथन के बारे में निर्णय लेने हेतु देवों (भगवानों) का सम्मेलन मेरू पर्वत पर हुआ।32

क्लासिक (शास्त्रीय) भारतीय साहित्य में मध्य एशियाई लोगः

               मध्य एशिया के लोगों को न केवल प्राचीन समय में भारतीयों द्वारा जाना जाता था अपितु वे भारतीय सामाजिक प्रणाली के हिस्सा थे। महाभारत इस बात पर बल देता है कि मध्य एशिया में शक, दरद, पहल्व, किरात, और परदा समुदाय जन्म से ही क्षत्रिय थे जैसा कि कहा जाता है।33 मनु स्मृति भी इसी बात को कहता है, जिसके अनुसार शक एवं यवन, निम्न स्तर क्षत्रिय थे जिनकी स्थिति और स्तर वृृशला ;टतपेींसंद्ध (वृश्ला) हो गया था।34 इस  मामले में इस बता पर ध्यान देना चाहिए कि सागर गाथा का विस्तृत वर्णन महाभारत और पुराणों में आया है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सागर राम के पूर्वज थे जिनका जन्म राम से 24 पुस्तक पहले हुआ था।35 सागर के पिता बाहु (असीता) को हैहया और तलाजंधा क्षत्रियों द्वारा शकों, यवनों, कम्बोजों, परादो और पहल्वों के साथ मिलकर परास्त किया गया और राज्य से बाहर निकाल दिया गया जिसके बाद वे जंगलों में चले गए और एक ऋषि के आश्रम में रहे जहाँ सागर का जन्म हुआ। जब सागर व्यस्क हुए और जब उन्हें परिवार के साथ हुए अन्याय का पता चला तब उन्होंने अपने पिता के दुश्मनों से बदला लिया। उसने हैहया और तलजंघा को एक युद्ध में परास्त किया और उनके सहयोगियों का भी वध करना चाहा। सागर के गुरु वशिष्ठ ने किसी तरह उन्हें मनाया और उन लोगेों को माफ करने के लिए कहा। परंतु वशिष्ठ द्वारा सुझाए गए अनुसार उन लोगों को अपने धार्मिक कत्र्तव्यों का त्याग करना पड़ा और इस प्रकार उन्हें जीते जी मृत घोषित कर दिया गया। जीवनमृत, ऐसे लोग जिन्हें मृत की भांति जीवित रहते हुए कर्तव्यों को त्यागने के लिए कहा गया हो। शक, यवन, कम्बोज, परादा और पहल्व, वृश्ला (वृत्या, निम्न स्तरीय क्षत्रिय, क्षत्रिय शूद्र) बन गए।36

इस संदर्भ में इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि सागर की किवदंती दो सम्भावनाओं को इंगित करती हैः 1ः भारत की राजनीतिक, भाषिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सीमा हिमालय, पामीर और हिंदूकुश से आगे तक फैला गया, तथा 2ः भारत से मध्य और पश्चिमी एशियाई समुदायों का पलायन होने लगा। वास्तव में पतंजलि के अपने महाभास्य में शक और यवन को भारत से प्रवासित जाति माना है।37 यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि महाभारत बनजातियों के उल्टे सामाजिक आवागमन का बारंबार जिक्र किया गया है। इसके अनुसार शक, यवन, कम्बोज और महाशक क्षत्रिय ब्राह्मणों से संपर्क का लाभ न उठाने के कारण वृश्ला बन गए, 38 तुषार और अन्य उचित व्यवहार की कमी के कारण निम्नस्तर हो गए, 39 कुछ और क्षत्रिय समुदाय भी ब्राह्मणों के साथ ईष्र्या के कारण निम्नस्तरीय बन गए।40

मध्य एशियाई समुदायों का महाभारत युद्ध तथा युधिष्ठिर के राजस्य यज्ञ में भाग लेने का जिक्र महाभारत में अनेक बार आया है। द्रौपदी के पिता और पांडवों के ससुर पंचाल के राजा द्रुपद युधिष्ठिर को यह कहते हैं कि वे मध्य एशिया के-शक, पहल्व, रिसिक और दराद राजाओं को पांडवों की तरहफ से महाभारत युद्ध में भाग लेने के लिए आमंत्रित करें।41 वास्तव में युधिष्ठिर ने ऐसा करने में बहुत देर कर दी। कम्बोज ने एक अकसौहिनी सेना, शक और यवन सेना के साथ मिलकर कौरवों की ओर से युद्ध में भाग लिया।42 सुदकसिना का दुर्योधन द्वारा दस में से एक सेना का सेनाध्यक्ष बनाया गया।43 तुषार (चीन का येह-ची, कनिष्ठ समुदाय के कुशाण) ने भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ा।44 वे क्रूर योद्धा थे।45 युधिष्ठिर के राजस्यु यज्ञ में तुषार भी मौजूद थे।46 जैसा कि महाभारत में जिक्र है कि अर्जुन उत्तर कुरु से श्रद्धांजलि लाए।47 तथा दूसरे पांड योद्धा नकुल ने हूणों, पहल्वों, यवनों और शकों को परास्त किया।48 युधिष्ठिर को उत्तर कुरु से श्रद्धांजलि प्राप्त हुइ।49 शक, हूण, तुषार ने युधिष्ठिर को श्रद्धांजलि अर्पित की।50 तुषार गिरि (तुषार पर्वत) का जिक्र महाभारत, हर्षचरित्र और काव्य मिमांसा में हुआ है।51 यह सत्य है कि चाक्सु नदी (ओक्सस अथवा आमु दरिया) से होकर बहती थी जैसा कि वायु और मत्स्य पुराण में उल्लेख किया गया है और इससे इन समुदायों की भौगोलिक अवस्थिति का पता चलता है।52

कंक सोग्डियनों का नाम है अर्थात् समरकंद के लोग। महाभारत में यह नाम अन्य मध्य एशियाई समुदायाों के साथ आया है। एक स्थान पर इसका नाम शक, तुषार (शक, तुषारह, कंकश) के साथ आया है, 53 वहीं दूसरी ओर इसका नाम शक, तुषार और पहल्व (शक, तुषारह, कंकश, पहल्वाश) के साथ आया है।54 भगवत पुराण में कंक का नाम दो बार कीरात, हूण, यवन, खास और दूसरों के साथ आया है, 55 और फिर इसका नाम कीरात हुण, खास, शक और दूसरों के साथ आया है।56 महाभारत में आमतौर पर एक जैसी जनजातियों को एक साथ रखा गया है, केवल सामाजिक कारकों के मामलों को छोड़कर।

समरकंद के आसपास क्षेत्र के निवासियों को सोग्डियन के रूप में जाना जाता था। महाभारत में इन लोगों को तुषार, यवन और शक के साथ कुलीकस ;ानसपांेद्ध के रूप में वर्णन किया गया है जो युद्ध में सेना के दाहिने हिस्से पर कब्ज़ा किए हुए थे।57 मार्केंडेय पुराण के अनुसार कुलीकस का वर्णन भारत के उत्तरी सीमा में रहने वाली जनजातियों जैसा कि लम्पकस, कीरात कास्मीरा, आदि के साथ किया गया है।58 मत्स्य पुराण के वर्णनानुसार कुलीकसों ने कलयुग (अंधकार युग) के दौरान भारत के एक कोने में अपने साम्राज्य की स्थापना की।59 यह भी इनके नाम का उल्लेख अपरंतिका, पंकादका, तारकसुर और कुछ अन्य जनजातियों के साथ करता है।60 ब्रह्म पुराण में इन्हें सुलिका तथा ब्रह्माण्ड पुराण में झिलिका कहा गया है तथा अन्य पांडुलिपियों में इन्हेें कुलीकम, वुलिका, वमिका, वुतिका और वर्लिका कहा गया है। विभिन्न प्रयोगों के दौरान कुलीका, कुइका, सुलिका नामों में से ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला नाम कुलिका और सुलिका है। सुलिका का उल्लेख कुलिका की भाँति तुकारस, भवन, पहल्वा, सिनास आदि के साथ किया गया है जो काक्यु नदी (वकसु, ओकस्स) नदी द्वारा सिंचित देश में रहते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार वे उत्तर में रहते थे जबकि वृहत-संहिता के अनुसार उनका स्थान उत्तर-पश्चिम का जिसका उल्लेख वृहतसंहिता में छह बार आया है।61 इस समुदाय का वर्णन चरक संहिता और विभिन्न लेक्सिकानों जैसी किताबों में किया गया है।62 चरक में यह नाम बहलिका, पहलिका, पहलव, सिना, यवन और शक के साथ आया है।63

एक संस्कृत-चीनी शब्दावली (फा-यु-सा-मिंग आॅफ लियेन) और एक अन्य खं डमें सूरी (त्रसूली) के समकक्ष शब्द ‘हू’ (उस अवधि के दौरान चीनियों द्वारा सोग्डियनों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द-जंगली) दिया गया है। इसका जिक्र पारसी (परसिका), तुरुस्का गाना (तुरुस्का), कारपिस्या (कपीस), तुखरा कुसिनान (कुचा) आदि के साथ किया गया है। तिब्बती और पहलवा उन्हें सुलिका (सुलिक भी) और पहलवा सुरक (जिसे सुलिक कहा जाता था) कहते थे। उपर्युक्त सभी तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय साहित्य में नामकरण में विभिन्नता काॅपियरों (प्रतिपक्षों) की लापरवाही और ध्वन्यात्मक विभिन्नता के कारण होती है जैसा कि ‘स’ ‘स्’ और ‘च’ के विनिमय में मध्य-इंडो-आर्यन में और यहाँ तक भी भारत में सामान्यतः अंतर दिखाई पड़ता है। इसलिए सोग्डियन नाम सुलिक और सूलिक ध्वन्यात्म रूप से कलिक और कुलिक में बदल सकते हैं। इसलिए चुलिका का अस्तित्व (सुलिका और सूलिका के इसके विभिन्न रूपों के साथ) सोग्डियन के साथ काफी स्पष्ट है। कुलिका-पैसासिक प्राकृत (चुलिका पैसाकी), जैसा कि कहीं और चर्चा की गई है, सोग्डियनों की भाषा के रूप में, उत्तर-भारत में बोली जाने वाली प्राकृत भाषा का एक रूप हो सकती है। जैसा कि प्रसिद्ध है कि, सोग्डियन, मध्य एशिया और चीन में प्रत्येक जगह अपने उपनिवेशों वाले व्यापारी थे। यहाँ तक कि वे भारत तक पहुँच गए और उनका अस्तित्व चालुक्य वंश, सोलंकी राजपूतों और पंजाब से कुछ अन्य समुदायों के साथ उचित ढंग से बताया गया है। इस घटना को न केवल सांस्कृतिक और भाषाई निरंतरता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए बल्कि इसे भारत और मध्य एशिया के बीच जातीय निरंतरता के रूप में भी देखना चाहिए।

वाल्मिकी के रामायण में कम्बोजों, यवनों, शकों, परादों और मल्लेच्छों का मिथक मूल वशिष्ठ ऋषि दैव्य शक्तियों के माध्यम से कामधेनु को बताया गया है।64 यहाँ यह भी बताया गया है कि अयोध्या में राजकुमारों और कम्बोज और बहलिका (बैक्ट्रिया) से घोड़ों (अश्वों) को लाया गया।65

जैसा कि ऊपर बताया गया है, मध्य एशिया के लोगों और भूमि के बारे में काफी जानकारी शास्त्रीय भारतीय साहित्य में उपलब्ध है। राजशेखर का काव्य मिमांसा, कल्हण का राजतरंगिनी और अन्य ग्रंथ, संस्कृत और बौद्ध गद्य कथा और दंत कथा आदि बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। गुनाध्या का बृहतकथा, सोमदेव का कथा-सरित सागर, क्षेमेन्द्र का वृहत-कथा-मंजरी तथा इसका जैनी अनुवाद (रूपांतरण)-वसुदेव-हिंदी, कालीदास के महाकाव्य और नाटक, खासतौर से मेघदूत और विक्रमोवर्शियम भारत के पड़ोसी-हिमालय और उत्तर-कुरु के बारे में पर्याप्त जानकारी प्रदान करते हैं।66

राजशेखर अपने काव्य मिमांसा में मध्य एशियाई समुदायों की एक विस्तृत सूची प्रदान करते हैं जिसमें शाक, तुसार, वोकन, हूण, कम्बोज, बहुलिका, पहलवा, तंगना, लिम्पक, तुरूस्का आदि शामिल हैं।67

जैसा कि कल्हण के राजतरंगिनी में उल्लेख किया गया है, कश्मीर के राजा ललितादित्य मतुक्तपिड ने अपने उत्तरी और उत्तरी-पश्चिमी पड़ोसियों-कम्बोज, तुषार, दरादों, स्त्रीराज्य, उत्तर कुरु आदि के विरूद्ध युद्ध किया।68 उन्होंने हूणों को भी युद्ध में अपमानित किया।69

क्षेमेन्द्र70 और सोमदेव71 ने अपनी कृतियो में, जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, राजा विक्रमादित्य के सफल युद्ध प्रयासों का वर्णन किया है कि उन्होंने उन आक्रमणकारियों के विरुद्ध लड़ा जो भारत पर उत्तरी पहाड़ियों की ओर से कर आक्रमण कर रहे थे।

कालीदास ने अपने मेघदूत, विक्रमोवर्शियम तथा रघुवंश में भारत के उत्तरी पर्वतों हिमालय और उत्तर कुरु का ग्राफिक चित्त प्रस्तुत किया है। रघुवंश में उत्तरपथ (उत्तरी क्षेत्र) के परासिका (फारसियों), हूणों और कम्बोजों के विरुद्ध राजा रघु के युद्ध प्रयासों का वर्णन किया गया है।72

विशाखदत्त का बौद्ध नाटक मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त के हिमालय के राजा ‘पर्वताक’ के साथ गठबंधन के बारे में जानकारी दी गई है जो उन्होंने शाक, यवन, कम्बोज, कीरात, परसिया और बहलिकाओं के विरुद्ध किया।73

सूत्र अलंकार के अनुसार पुष्कालावती के एक चित्रकार ने अशमाक नामक देश का दौरा किया, अश्माक का तात्पर्य पत्थर का पथरीला है, और उसने बौद्ध मठ को सजाने का कार्य किया। उस देश की पहचान ताशकंद के साथ की गई है। इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि एक परंपरा है कि सूत्रालंकर (सूत्रालंकार) को अश्वघोष द्वारा लिखा गया। अन्य विद्वान इसका लेखक कुमारलट को मानते है। 

यहाँ इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि ताशकंद के ताश शब्द का संबंध पत्थर से है। इसका प्राचीन नाम ‘छच’ है; बुल्लीब्लैंक ने ‘पत्थर’ के लिए येनिशियन शब्द से इसे जोड़ना चाहता था; येनिशियन शब्द थे-केट, टाई, काॅट, शीश पम्पोकील्स्क सि सवह इसे पाँचवीं अथवा छठी शताब्दी में सोग्डियन पर हूनों के कब्जे के अवशेषों के रूप में देखता है। हालांकि शपूर-प् (240-272 ई.पू.) के लेखों में इस शब्द का उल्लेख मिलता है कि इसके पास प्राचीन मुद्रा थी। प्राचीन चीनी लेखों में ताशंकद का उल्लेख हाइरोग्लिफ ‘शिश’ के रूप में मिलता है, जो पत्थर होता है। टर्किक ताश ‘पत्थर’ से संबधित नाम प्रारंभिक प्राचीन नामांे का अनुवाद हो सकते हैं। प्राचीन नाम ‘छच’ का अनुवाद हो सकते हैं। प्राचीन नाम ‘छच’ का तात्पर्य भी ‘पत्थर’ होता था। चीनी स्रोतों के अनुसार इस क्षेत्र के निवासी चियांग चू अथवा कियांग चू थे। ये संभवतः तुखारियन मूल के हो सकते हैं। तुखारियन मंे कियांग का तात्पर्य किसी प्रकार के पत्थर से है। हिंदी में कंकर का तात्पर्य पत्थर होता है। जैसा कि पहले चर्चा किया जा चुका है कि भारतीय साहित्य में सोग्डियन के लिए कंक शस्त्रंश और ताशकंद के लिए अस्माक शब्दांश का उल्लेख है।74 ताशकंद, समरकंद, यारकंद का कंद अथवा कंत शब्द संस्कृत के कंथ शब्द के जैसा समानार्थक होता है। पाणिनी के अष्टाध्यायी में यह शब्द आया है। ‘काशिका सूत्र’ शब्द ‘शहर’ अथवा ‘नगर’ को दर्शाता है। मुझे यह बताया गया है कि ताशकंद और यारकंद को क्रमशः दक्षिकंथ और यहवरकंथ के रूप में जाना जाता था। तुर्क शब्द के लिए संस्कृत में तुरूक्षा शब्द है। इस नाम का प्रथम शब्दांश शास्त्रीय भारतीय साहित्य के ‘तुरवासु’ नाम में पाया जाता है। दूसरा शब्दांश ‘स्क’ ;ेांद्ध अतिसंवेदनशनील प्रत्यय है जो कनिष्क के नाम में है; ‘कनिस्क’ का तात्पर्य ‘कनिष्ठ पुत्र’ होता है।75

मध्य एशिया के अनेक देशों और स्थानों का आखिरी शब्दांश ‘स्तान’ (संस्कृत का ‘स्थान’ और फारसी का ‘स्तान’) है। कुछ पुराने भौगोलिक नाम बदल गए हैं, (कुछ दूसरे नाम का प्रयोग आज भी मामूली बदलाव के साथ किया जा रहा है।) आज चीनी तुर्कीस्तान की ‘सीता’ नदी तारीन नदी कही जाती है; खोताम्न और कुस्तन अब खोतान कहलाता है; गंधार, कुभा, गोमती और वाक्सु अब कंदहर, काबुल, गोमल और आॅक्सस के रूप क्रमशः बदल गए हैं। शाक, कुषाण, हूण आदि नामों का प्रचलन आज भी जारी है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हो सकते हैं। भारतीय मिथक के अनुसार कश्यप (कश्यपा) जीवित विश्व के पूर्वज और द्रष्टा थे; भृगु (भ्रगु) एक द्रष्टा थे। ‘कैस्पीयन समुद्र’ और फ्रिगिया (ग्रीसवासियों द्वारा फ्रूगिया कहा जाता है।) हमें क्रमशः कश्यम‘’ और ‘भृगु’ का स्मरण करवाते हैं। हमें इस बात की जाँच करनी चाहिए कि क्या फोनिशियन का फोनिक का संबंध संस्कृत के बानिक,(व्यारियों) से तो नहीं है।76